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बुधवार, 25 मई 2016

विनियोग के अभिप्राय और प्रकार

!!!---: विनियोग के अभिप्राय और प्रकार :---!!!
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विनियोग से अभिप्राय

(1.) सामान्य अर्थों में एक विशेष उद्देश्य को लेकर दो भिन्न वस्तुओं अथवा पदार्थों को दूसरे में मिलाना अथवा एक दूसरे के लिए नियुक्त करना "विनियोग" कहाता है ।

(2.) किसी विशिष्ट उद्देश्य से पदार्थों का उपयोग लेना और तदर्थ फल प्राप्त करना भी "विनियोग" है ।

(3.) साहित्य की दृष्टि से जो वाक्य किसी एक ग्रन्थ में विशेष प्रकरण में पडे हों, उनको प्रसंगानुसार किसी वैसे ही प्रकरण में इस ढंग से प्रयोग करना कि जिससे वे उस प्रसंग में ठीक तरह घटित हो सके, "विनियोग" कहाता है ।

विनियोग के प्रकार

विनियोग दो प्रकार का होता हैः---(1.) सार्थक विनियोग (2.) निरर्थक विनियोग ।

(1.) सार्थक विनियोगः---

यज्ञादि कर्मकाण्डों में ऐसे अर्थों वाले वेदमन्त्रों को नियुक्त करना कि जिनसे कर्मकाण्डों की क्रिया-प्रक्रिया की व्याख्या उसकी आपसी संगति और सार्थकता सिद्ध हो जावे, सार्थक विनियोग कहता है । उदाहरणार्थ देखें सन्ध्या प्रारम्भ करने का आचमन मन्त्र---

"ओम् शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये । शंयोरभि स्रवन्तु नः ।।"
(यजुर्वेदः---36.12)

अर्थः----हे जगदीश्वर, जैसे (अभिष्टय) इष्ट सुख की सिद्धि के लिए (पीतये) पीने के लिए, (देवी) दिव्य उत्तम (आपः) जल, (नः) हमको (शम्) सुखकारी (भवन्तु) होवे, (नः) हमारे लिए (शंयो) सुख की वृष्टि, (अभिस्रवन्तु) सब ओर से करें । जो मनुष्य यज्ञादि से जलादि को शुद्ध सेवन करते हैं,, उन पर सुखरूप अमृत की वर्षा निरन्तर होती है ।

असार्थक विनियोगः---

मनमाने वेदविरुद्ध , शास्त्रविरुद्ध , यज्ञादि कर्मकाण्डों में उन वेदमन्त्रों को विनियुक्त करना, चाहे उन वेदमन्त्रों के वेदार्थ की कर्मकाण्डों की क्रिया-प्रक्रिया से संगति बैठती हो या नहीं बैठती हो--असार्थक विनियोग कहता है ।


सार्थक विनियोग में वेदार्थ के अनुकूल कर्मकाण्ड किया जाता है अथवा वेदार्थ के पीछे कर्मकाण्ड चलता है, परन्तु असार्थक विनियोग में वेदार्थ कर्मकाण्ड के अनुकूल किया जाता है , चाहे वह अर्थ युक्ति एवं वेदार्थ प्रक्रिया के अनुसार न कर मनमाना क्यों न किया गया हो ।

सार्थक विनियोग में वेदार्थ मुख्य और कर्मकाण्ड गौण और असार्थक विनियोग में कर्मकाण्ड मुख्य वेदार्थ गौण हो जाता है । उदाहरणार्थः---

(1.) ओम् गणानां त्वा गणपतिं हवामहे प्रियाणां त्वां प्रियपतिं हवामहे निधीनां त्वां निधिपतिं हवामहे वसो मम । आहम् जानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम् ।।"
(यजुर्वेदः---23.19)

पौराणिक कर्मकाण्ड में इस मन्त्र का सूण्ड वाले गणेश जी की मूर्ति अथवा चित्र में विनियोग किया गया है । जबकि इसका सही अर्थ ऋषि दयानन्द ने ऋ.भा.भू के भाष्यकरणशंकासमाधान विषय में दिया हैः---

अर्थः----(गणानां त्वा) जो परमात्मा गणनीय पदार्थों का पति अर्थात् पालन करने हारा है, (त्वा) उसको (हवामहे) हमलोग पूज्यबुद्धि से ग्रहण करते हैं । (प्रियानाम्) जो कि हमारे इष्ट मित्र और मोक्षसुखादि का प्रियपति, तथा हमको आनन्द में रखकर सदा पालन करने वाला है, उसी को हमलोग अपना उपास्यदेव जान कर ग्रहण करते हैं । (निधीनां त्वा) जो कि विद्या और सुखादि का निधि अर्थात् हमारे कोशों का पति है, उसी सर्वशक्तिमान् परमेश्वर को हम अपना राजा और स्वामी मानते हैं , तथा जो कि व्यापक होके सब जगत् में और सब जगत् उसमें बस रहा है , इस कारण से उसको वसु कहते हैं । हे वसु परमेश्वर, जो आप अपने सामर्थ्य से जगत् के अनादि कारण में गर्भ धारण करते हैं अर्थात् सब मूर्तिमान् द्रव्यों को आप ही रचते हैं, इसी हेतु से आपका नाम गर्भध है । (आहमजानि) में ऐसे गुणसहित आपको जानूँ । (आ त्वा) जैसे आप सब प्रकार से सबको जानते हैं, वैसे ही मुझको भी सब प्रकार से ज्ञानयुक्त कीजिए । (गर्भधम्) दूसरी बार गर्भध का पाठ इसलिए है कि जो जो प्रकृति और परमाणु आदि कार्यद्रव्यों के गर्भरूप है, उनमें भी सब जगत् के गर्भरूप बीज को धारण करने वाले ईश्वर से भिन्न दूसरा कार्य्य जगत् की उत्पत्ति स्थिति और लय करने वाला कोई भी नहीं । (पृ.343)

अब देखिए इस अर्थ में गणेश की मूर्ति की कोई चर्चा नहीं है, फिर भी पौराणइक भाई इस मन्त्र से गणेश की मूर्ति प्रतिष्ठापना करते हैं, पूजा करते हैं, पाठ करते हैं, जो कि अनर्थक है ।

(2.) "ओम् शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये । शंयोरभिस्रवन्तु नः ।।" पौराणिक लोग इसका विनियोग शनि ग्रह की पूजा में करते हैं । इसका सही अर्थ ऊपर देखें ।

(3.) "ओम् नमः शम्भवाय च मयोभवाय च
नमः शंकराय च मयस्कराय च
नमः शिवाय च शिवतराय च ।।" (यजुर्वेदः--16.41)

इसका शिवलिंग की पूजा में पौराणिकों ने विनियोग किया है । इसकी सही विनियोग सन्ध्या के नमस्कार मन्त्र के रूप में है ।

सार्थक विनियोग से लाभ

(1.) यज्ञादि का आशय समझ में आ जाता है ।
(2.) वेद-मन्त्रों की बार-बार आवृत्ति होने से वे कण्ठस्थ होकर और उनका संरक्षण होता है ।
(3.) यज्ञों की प्रक्रिया का नियमन होता है ।
(4.) यज्ञों के प्रति आकर्षण बना रहता है ।
(5.) वेदाध्ययन की प्रेरणा मिलती है ।
(6.) वेदवाणी (संस्कृत भाषा) का संरक्षण होता है ।
(7.) सृष्टि-निर्माण की प्रक्रिया समझ में आ जाती है ।
(8.) यज्ञों से होने वाले लाभों का पता चलता है ।
(9.) यज्ञों में वेदमन्त्रों का उच्चारण होने से यज्ञ कर्णप्रिय और उनके अनुकूल कर्मकाण्ड होने से यज्ञ दिखने में सुन्दर और श्रेष्ठ लगते हैं ।

असार्थक विनियोग से हानि

(1.) यज्ञादि का मूल समझ में नहीं आता है ।
(2.) यज्ञ प्रक्रियाओं का नियमन नहीं होता ।
(3.) याज्ञिक वेदभाष्य प्रणाली से यह धारणा प्रबल हो जाती है कि मानो वेदमन्त्रों की रचना यज्ञों के लिए ही हुई है ।
(4.) वेद समस्त सत्य विद्याओं और ज्ञान-विज्ञान का आकर ग्रन्थ है--धारणा समाप्त हो जाती है ।
(5.) वेदों को मात्र याज्ञिक एवं कर्मकाण्डीय ग्रन्थ ही मान लिया जाता है।
(6.) वेदों को जटिल ग्रन्थ मानकर उनका लिखना पढना बन्द हो जाता है।
(7.) यज्ञ एक पाखण्ड बन जाता है ।
(8.) हमारा मूल धर्म और मूल संस्कृति स्पष्ट नहीं होती ।

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