!!!---: सच्ची दया :---!!!
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सच्चे शिव की खोज में युवक मूलशंकर ब्रह्मचारी शुद्ध चैतन्य ज्ञान प्राप्त करने के लिए किसी अच्छे गुरु की खोज में देशाटन कर रहे थे । एक दिन उन्होंने एक गाँव में देखा कि कुछ लोग गाजे-बाजे के साथ धमाल मचाते हुए जा रहे थे । उनके पीछे एक विधवा औरत रोती-बिलखती हुई जा रही थी । ब्रह्मचारी शुद्ध चैतन्य ठिठक गए । उन्होंने उस रोती औरत को पुकारते हुए कहा,
"माँ , क्या बात है, क्या कष्ट है, जो तुम ऐसे बिलख-बिलखकर रो रही हो ।"
उस औरत ने कहा, "मैं एक अभागी विधवा हूँ । ये लोग मेरे इकलौते बेटे को देवी की बलि देना चाहते हैं । मेरी किसी पुकार अनुनय-विनय का इन पर कोई असर नहीं हुआ ।"
उस दुःखी माँ के साथ ब्रह्मचारी शुद्ध चैतन्य मन्दिर जा पहुँचे । वहाँ देवी की मूर्ति के सामने एक छोटे-से अबोध बच्चे को जबरदस्ती लिटाया हुआ था । बच्चा चीख-पुकार कर रहा था । मन्दिर के अन्दर पहुँचकर ब्रह्मचारी शुद्ध चैतन्य ने उन सबको डाँटा-ललकारा और कहा,
"इस बच्चे और विधवा नारी पर अत्याचार क्यों कर रहे हो ।"
वे ढोंगी बोले, "हमें को देवी को बलिदान देना है । यह बच्चा बचाना चाहते हो तो खुद की बलि दे दो ।"
कहते हैं कि एक क्षण का संकोच किए बिना उस दयालु युवक ने अपनी गर्दन बलिस्थान पर रख दी । वे सब ढोंगी लोग हर्ष से चिल्ला उठे । वे आगे कुछ करते, इससे पहले ही शोर सुनकर वहाँ कम्पनी के कुछ सिपाही आ गए । उन्होंने सारा माजरा देखकर उन ढोंगियों को ललकारा । वे सब पूजा-सामग्री और हथियार छोडकर भाग निकले ।
उस माँ ने उस ब्रह्मचारी के पैरों में सिर नवा दिया और उसकी दया के लिए अपनी कृतज्ञता प्रकट की ।
उस युवक की दया को देखकर स्वामी पूर्णानन्द ने उन्हें दीक्षा दी और उन्हें संन्यास का नाम दयानन्द दिया वे उस दिन से स्वामी दयानन्द कहलाए । आगे की पढाई के लिए उन्होंने स्वामी विरजानन्द का नाम सुझाया । स्वामी विरजानन्द उस समय मथुरा में रहते थे । वे उस समय के पहुँचे हुए व्याकरण के विद्वान् थे । स्वामी दयानन्द उनके पास जाकर संस्कृत की पूरी शिक्षा ग्रहण की । उन्होंने आगे चलकर "आर्य समाज" की स्थापना 1875 में की ।
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