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मंगलवार, 24 मई 2016

प्राच्य आर्यावर्त्त की सीमा

!!!---: प्राच्य आर्यावर्त्त की सीमा :---!!!
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मनु महाराज ने मनु-स्मृति में आर्यावर्त्त की सीमा बताई हैः---

"आसमुद्रात् वै पूर्वादसमुद्रात्तु पश्चिमात् ।
तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्त्तं विदुर्बुधाः ।।"
(मनु-स्मृतिः--2.22)

अर्थः---पूर्व में समुद्र से लेकर , पश्चिम में समुद्र-पर्यन्त विद्यमान, उत्तर में हिमालय और दक्षिण में स्थित विन्ध्याचल का मध्यवर्ती देश है, उसे विद्वान् जन "आर्यावर्त्त" कहते हैं ।

"हिमवद्विन्ध्ययोरमध्यं यत्प्राग्विनशनादपि ।
प्रत्यगेव प्रयागाच्च मध्यदेशः प्रकीर्तितः ।।"
(मनु-स्मृतिः--2.21)

अर्थः---उत्तर में हिमालय पर्वत और दक्षिण में विन्ध्याचल के मध्यवर्ती विनशन-प्रदेश (सरस्वती नदी) के लुप्त होने के स्थान से लेकर जो पूर्वदिशा का प्रदेश है और प्रयाग प्रदेश से पश्चिम में जो प्रदेश है, वह "मध्यदेश" कहा जाता है ।

मनु महाराज ने इस भूमि को "यज्ञिय देश" कहा हैः---

"कृष्णसारस्तु चरति मृगो यत्र स्वभावतः ।
स ज्ञेयो यज्ञियो देशो म्लेच्छदेशस्त्वतः परः ।।"
(मनु-स्मृतिः---2.23)

अर्थः---और जिस देश में स्वाभाविक रूप से कृष्णमृग विचरण करता है, वह आर्यावर्त्त देश यज्ञो से सम्बद्ध पवित्र , श्रेष्ठ अथवा श्रेष्ठ कर्मों वाले व्यक्तियों से युक्त देश है, ऐसा समझना । इस आर्यावर्त्त से आगे म्लेच्छभाषाभाषी व्यक्तियों अथवा अशिक्षित व्यक्तियों के देश है ।

आचार्य पतञ्जलि मुनि ने भी अपने महाभाष्य में "आर्यावर्त्त" की सीमा बताई हैः---

"प्रागादर्शात् प्रत्यङ्कालकवनात् दक्षिणेन हिमवन्तमुत्तरेण पारियात्रम् ।
एतस्मिन्नार्यावर्त्ते आर्यनिवासे ये ब्राह्मणाः कुम्भीधान्या अलोलुपा अगृह्यमाणकारणाः किञ्चिदन्तरेण कस्याश्चिद्विद्यायाः पारंगतास्तत्रभवन्तः शिष्टाः ।।" (महाभाष्य-6.3.109)

अर्थः---पश्चिम में कुरुक्षेत्र-अन्तर्गत आदर्श जनपद, पूर्व में प्रयाग के समीप का कालक वन, उत्तर में हिमालय पर्वत, और दक्षिण में पारियात्र तक की सीमा है, वह आर्यावर्त्त देश है । पतञ्जलि की दृष्टि में यह पवित्र और शिष्टों का देश था । इस प्रदेश में रहने वाले लोग कुम्भीधान्य (असंग्रही), अलोलुप (अलोभी), अगृह्यमाणकारण (इन्द्रिय जयी) और सापेक्षिक अन्तर से किसी-न-किसी विशिष्ट विद्या में पारंगत ब्राह्मण थे । उनका आचार और वाणी ही प्रमाण थी ।

पूर्व में समुद्र तक और पश्चिम में समुद्र तक । उत्तर में हिमालय पर्वत पश्चिम में हिन्दुकुश से लेकर पूर्व में असम और अराकान पर्वतमाला तक भारत की सम्पूर्ण उत्तरी सीमा फैली हुई पूरी पर्वत श्रेणी को हिमवान् पर्वत कहा जाता है । आधुनिक भूगोलवेत्ताओं के अनुसार विन्ध्यपर्वत पश्चिम में गुजरात से लेकर पूर्व में बिहार तक लगभग 700 मील तक फैला हुआ है । सतपुडा आदि इसी के भाग हैं । इन दोनों पर्वत प्रदेशों और उनके मध्यवर्ती भूभाग को "आर्यावर्त्त" कहा जाता है ।

मनुस्मृति के अनुसार इसके उत्तर में शक और चीन देशों से लेकर दक्षिण में द्रविड (तमिलनाडु) तक पश्चिम में पह्लव (ईरान) प्रदेश से लेकर पूर्व में किरात प्रदेश (ब्रह्मपुत्र का पूर्व भाग) तक इसका विस्तार था । पश्चिम से पूर्व समुद्र भी इतना ही फैला है ।

इस आर्यावर्त्त देश को धर्मदेश कहा जाता है ।

आर्यावर्त्त के प्रदेश या जनपदः---

(1.) ब्रह्मावर्त्तः---

मनु स्मृति में ब्रह्मावर्त्त प्रदेश को सर्वोच्च महत्त्व का प्रदेश माना गया है । यहाँ के निवासियों का आदर्श आचरण "सदाचार" है । सदाचार की शिक्षा का यह एकमात्र केन्द्र हैः---

"एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ।।"
(मनु-स्मृतिः--2.20)

भौगोलिक दृष्टि से यह एक लघु प्रदेश था, जो सरस्वती और दृषदवती देवनदियों के मध्यवर्ती भूखण्ड पर स्थित था । महाभारत में इसे "धर्मक्षेत्र" कहा है ।

वैदिक एवं लौकिक संस्कृत वाङ्मय में प्राप्त उल्लेखों के अनुसार सरस्वती नदी, हिमालय पर्वत श्रेणी में शिवालिक पहाडियों से उद्भूत होकर शिमला पटियाला (वर्त्तमान पंजाब प्रान्त) तथा सिरसा (वर्त्तमान हरियाणा प्रान्त) के क्षेत्रों से प्रवाहित होकर ब्रह्मावर्त्त की पश्चिमोत्तरीय सीमाओं का निर्माण करती थी । इसकी भौगोलिक स्थिति बदलती रही है । वैदिक साहित्य के अनुसार यह पश्चिम में समुद्र में गिरती थी, जबकि अवान्तर साहित्य के अनुसार यह राजपूताना (वर्त्तमान पश्चिमी राजस्थान) की मरुभूमि में विलुप्त हो गई थी । यही स्थान "विनशन" के नाम से प्रसिद्ध हुआ है ।

हिमालय पर्वत श्रेणी में शिवालिक-पहाडियों से ही उद्भूत होकर दृषद्वती नदी, ब्रह्मावर्त्त की पूर्वी और दक्षिणी सीमाओं का निर्माण करती हुई यमुना के समानान्तर प्रवाहित होकर कुरुक्षेत्र के दक्षिण की ओर से होती हुई सरस्वती नदी में मिलती थी । (महाभारत, वनपर्व--5.2)
दोनों ही नदियों के तट ऋषियों, मुनियों, विद्वानों के निवास एवं आश्रमों से सुशोभित थे । इनके तटों पर यज्ञों का अनुष्ठान प्रत्येक दिवस किया जाता था । इसी कारण मनु से इनको "देवनदी" कहा है । सम्प्रति दोनों ही नदियों की पहचान को लेकर भूगोलवेत्ताओं में मतभेद है ।

(2.) ब्रह्मर्षि देशः---

ब्रह्मावर्त्त के साथ लगते पूर्व-दक्षिण प्रदेश को "ब्रह्मर्षि देश" कहा जाता है । इसमें ये जनपद हैंः---कुरुक्षेत्र (वर्त्तमान हरियाणा), मत्स्य (वर्त्तमान राजस्थान में जयपुर और अलवर तथा भरतपुर का कुछ क्षेत्र), पंचाल (वर्त्तमान उत्तरप्रदेश के बरेली, बदायूँ और फर्रुखाबाद जिलों के क्षेत्र), शूरसेन (मथुरा और आसपास के क्षेत्र)

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि कुरुक्षेत्र ब्रह्मावर्त्त प्रदेश के अन्तर्गत आ जाता है और शेष तीनों जनपद "मध्यदेश" में सम्मिलित है । अतः ब्रह्मर्षि देश की परिकल्पना सार्थक नहीं है ।

(3.) मध्य देशः----

उत्तर में हिमालय पर्वत, दक्षिण में विन्ध्यपर्वत, पूर्व में प्रयाग प्रदेश और पश्चिम में विनशन स्थान इनका मध्यवर्ती भूभाग "मध्यदेश" कहलाता था ।

(4.) अन्य जनपदः----

मनु महाराज ने बारह जातियों का नामोल्लेख किया है , जो देशाधारित थाः---

(क) पौण्ड्रकः---बंगाल के दीनाजपुर, मालदह, राजशाही और बोगरा तथा रंगपुर (बांग्ला देश) के पश्चिमी क्षेत्र ।

(ख) औड्रः---आधुनिक ओडिशा का पूरी--भुवनेश्वर का क्षेत्र और पूर्वी उत्तरी क्षेत्र । उत्तर में जाजपुर तक था ।

(ग) किरातः---ब्रह्मपुत्र की पूर्वी घाटी का क्षेत्र ।

(घ) द्रविडः---दक्षिण में कावेरी नदी के आसपास का क्षेत्र । वर्त्तमान तमिलनाडु प्रदेश।

(ङ) पल्हवः---वर्त्तमान ईरान (फारस) का पूर्वी क्षेत्र ।

(च) पारदः---वर्त्तमान बलुचिस्तान (पाकिस्तान) में हिंगुला नदी प्रदेश और हिंगुलाज प्रदेशीय क्षेत्र ।

(छ) शकः---शकों का मूल स्थान मध्य एशिया था । इनका निवास सायर और ऑक्शस (वक्षु) नदियों (वर्त्तमान रूस) के समीपस्थ प्रदेश में माना जाता था ।चीन की यूची जाती द्वारा खदेडे जाने के बाद इन्होंने सीमान्त प्रदेशों में अपने प्रदेश बसाए और शनैः शनैः भारत के भीतरी प्रदेशों पर घुस आए ।

(ज) यवनः----मूलतः यवन यूनान के निवासी थे । भारत से इनके सम्बन्ध अत्यन्त प्राचीन काल से थे । वहाँ से आकर ये आक्शस और हिन्दुकुश पर्वत के मध्य बस गए । इसी कारण उस क्षेत्र को "यवन देश" कहा गया । बल्ख (अफगानिस्तान) इनकी राजधानी थी ।

(झ) कम्बोजः---दक्षिण पश्चिम काश्मीर, वर्त्तमान पामीर और बदख्शा का क्षेत्र (अफगानिस्तान) ।

(ञ) दरदः---उत्तर-पश्चिम काश्मीर का गिलगित, हुजा प्रदेश ।

(ट) खशः---गढवाल और उसका उत्तरवर्ती क्षेत्र ।

(ठ) मगध देशः---वर्त्तमान बिहार, कुछ पूर्वी उत्तर प्रदेश का भूभाग ।

अऩ्य देश भी थेः--आन्ध्र, अम्बस्ठ, आदि ।

आचार्य पतञ्जलि के अनुसार किष्किन्ध, गन्धिक , शक, यवन, शौर्य, क्रौंच आदि आर्यावर्त्त से बाह्य थे ।

बोधायन ने आरट्ट, कारस्कर, पुण्ड्र, सौवीर, बंग और कलिंग को पतित देश कहा तथा इनमें जाने वालों को शुदधि के लिए प्रायश्चित्त का विधान किया हैः---



"आरट्टान् कारस्करान् पुण्ड्रान् सौवीरान् कलिङ्गान् प्रानूनानिति च गत्वा पुनस्तोमेन यजेत सर्वपृष्ठ्या वा ।" (बोधायन1.1.15)
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