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रविवार, 9 अक्टूबर 2016

अन्त्येष्टि-कर्म



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!!!---: अन्त्येष्टि-कर्म :---!!!
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महर्षि दयानन्द सरस्वती जी का पूना प्रवचनः---२० जुलाई १८७५ को पूना में दिए गए प्रवचन में महर्षि दयानन्द सरस्वती ने संस्कार के बारे में कहा था -

आश्वलायन सूत्र में इस संस्कार का वर्णन किया है । आजकल हमारे देश में अन्त्येष्टि के तीन प्रकार जारी हैं । कुछ लोग मृतक देह को जलाते हैं, कुछ लोग जंगल में ले जाकर डाल आते हैं और कुछ लोग जल-समाधि दे देते हैं ।

मुर्दे को जमीन में गाडने से रोग की उत्पत्ति होती हैः---
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प्राचीन आर्य लोगों में अन्त्येष्टि यह यज्ञ है । उसमें दहन प्रकार मुख्य है । अब मुर्दे को गाडने वाले ऐसी शंका करें कि जलाना बडी निष्ठुरता है, परन्तु मुसलमान आदिकों को विचार करना चाहिए कि मुर्दे को जमीन में गाडने से रेोग की उत्पत्ति होती है ।

जल-प्रदूषण पर स्वामी जी का विचारः---
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"कोई-कोई ऐसी शंका करेगा कि जल में देह (शव) डालने से मच्छियां उसे खाती हैं, तो क्या यह परोपकार नहीं है, परन्तु जल बिगड़ता है, इसका भी तो विचार करना चाहिए । गंगा सदृश महान् नदियों के तल में प्रेतों (की अस्थि-भस्म आदि) को डालने से जल में विकार उत्पन्न होता है, फिर छोटी-मोटी नदियों की तो कथा ही क्या है । अब गंगा में हड्डियाँ ले-जाकर (बहुत से लोग) डालते हैं, यह कितना भारी अज्ञान है ? मरे हुए प्राणी का देह मृत्तिका (मिट्टी) है । उसे गंगा में डालने से क्या लाभ होगा ? वन में ले जाकर फेंकने से दुर्गन्धि उत्पन्न होकर रोग उत्पन्न होता है, इसे कहने की कोई आवश्यकता नहीं है ।"
अन्त्येष्टि वेदी
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इससे प्राचीन आर्य लोगों ने दहन विधि ही को मुख्य माना था, यह ठीक ही है । वे श्मशानभूमि में एक वेदी बनाते थे और उसे पक्की ईंटों से बाँधते थे और फिर उसमें मत देह को जलाते समय बीस सेर घृत डालकर चन्दनादि सुगन्धित पदार्थ भी डालते थे । शुक्ल यजुर्वेद के ३९ में अध्याय में इसका वर्णन किया है ।

आजकल अन्त्येष्टि संस्कार यथाविथि नहीं होता, नाम मात्र होता है । केवल कट्टहाओं (महाब्राह्मणों) को धन मिलता है, सो यह जबरदस्ती है ।

स्रोतः----('उपदेश-मंजरी', सातवाँ उपदेश)
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