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गुरुवार, 20 अक्टूबर 2016

गणराज्य और उसका इतिहास

!!!---: गणराज्य और उसका इतिहास :---!!!
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गणराज्य (संस्कृत से; "गण": जनता, "राज्य": रियासत/देश) एक ऐसा देश होता है जहाँ के शासनतन्त्र में सैद्धान्तिक रूप से देश का सर्वोच्च पद पर आम जनता में से कोई भी व्यक्ति पदासीन हो सकता है। इस तरह के शासनतन्त्र को गणतन्त्र ( गण :--पूरी जनता, तंत्र :---प्रणाली; जनता द्वारा नियंत्रित प्रणाली) कहा जाता है।

"लोकतंत्र" या "प्रजातंत्र" इससे अलग होता है। लोकतन्त्र वो शासनतन्त्र होता है जहाँ वास्तव में सामान्य जनता या उसके बहुमत की इच्छा से शासन चलता है। आज विश्व के अधिकांश देश गणराज्य हैं और इसके साथ-साथ लोकतान्त्रिक भी। भारत स्वयम् एक लोकतान्त्रिक गणराज्य है।

गणराज्य जो लोकतन्त्र नहीं हैं
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हर गणराज्य का लोकतान्त्रिक होना अवश्यक नहीं है। तानाशाही, जैसे हिट्लर का नाज़ीवाद, मुसोलीनी का फ़ासीवाद, पाकिस्तान और कई अन्य देशों में फ़ौजी तानाशाही, चीन, सोवियत संघ में साम्यवादी तानाशाही, इत्यादि गणतन्त्र हैं, क्योंकि उनका राष्ट्राध्यक्ष एक सामान्य व्यक्ति है या थे। लेकिन इन राज्यों में लोकतान्त्रिक चुनाव नहीं होते, जनता और विपक्ष को दबाया जाता है और जनता की इछा से शासन नहीं चलता।

ऐसे कुछ देश हैं :

पाकिस्तान
चीन
अफ़्रीका के अधिक्तम् देश
ईरान
बर्मा
दक्षिणी अमरीका के कई देश

लोकतन्त्र जो गणराज्य नहीं हैं
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हर लोकतन्त्र का गणराज्य होना आवश्यक नहीं है। संवैधानिक राजतन्त्र, जहाँ राष्ट्राध्यक्ष एक वंशानुगत राजा होता है, लेकिन असली शासन जनता द्वारा निर्वाचित संसद चलाती है, इस श्रेणी में आते हैं। ऐसे कुछ देश हैं :-----

ब्रिटेन और उसके डोमिनियन :
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कनाडा
ऑस्ट्रेलिया
स्पेन
बेल्जियम
नीदरलैंड्स
स्वीडन
नॉर्वे
डेनमार्क
जापान
कम्बोडिया
लाओस
दक्षिणी कोरिया


भारतीय गणशासन का इतिहास
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प्राचीन काल में दो प्रकार के राज्य कहे गए हैं। एक राजाधीन और दूसरे गणाधीन।

राजाधीन को एकाधीन भी कहते थे। जहाँ गण या अनेक व्यक्तियों का शासन होता था, वे ही गणाधीन राज्य कहलाते थे। इस विशेष अर्थ में पाणिनि की व्याख्या स्पष्ट और सुनिश्चित है।

उन्होंने गण को संघ का पर्याय कहा है (संघोद्धौ गणप्रशंसयो:, अष्टाध्यायी-३.३.८६)।

साहित्य से ज्ञात होता है कि पाणिनि और बुद्ध के काल में अनेक गणराज्य थे।

(१.) तिरहुत से लेकर कपिलवस्तु तक गणराज्यों का एक छोटा सा गुच्छा गंगा से तराई तक फैला हुआ था। बुद्ध शाक्यगण में उत्पन्न हुए थे। लिच्छवियों का गणराज्य इनमें सबसे शक्तिशाली था, उसकी राजधानी वैशाली थी।

(२.) किंतु भारतवर्ष में गणराज्यों का सबसे अधिक विस्तार वाहीक (आधुनिक पंजाब) प्रदेश में हुआ था। उत्तर पश्चिम के इन गणराज्यों को पाणिनि ने आयुधजीवी संघ कहा है। वे ही अर्थशास्त्र के वार्ताशस्त्रोपजीवी संघ ज्ञात होते हैं। ये लोग शांतिकल में वार्ता या कृषि आदि पर निर्भर रहते थे किंतु युद्धकाल में अपने संविधान के अनुसार योद्धा बनकर संग्राम करते थे। इनका राजनीतिक संघटन बहुत दृढ़ था और ये अपेक्षाकृत विकसित थे।

इनमें क्षुद्रक और मालव दो गणराज्यों का विशेष उल्लेख आता है। उन्होंने यवन आक्रांता सिकंदर से घोर युद्ध किया था। वह मालवों के बाण से तो घायल भी हो गया था। इन दोनों की संयुक्त सेना के लिये पाणिनि ने गणपाठ में क्षौद्रकमालवी संज्ञा का उल्लेख किया है। पंजाब के उत्तरपश्चिम और उत्तरपूर्व में भी अनेक छोटे मोटे गणराज्य थे ।

उनकी एक शृंखला त्रिगर्त (वर्तमान काँगड़ा) के पहाड़ी प्रदेश में विस्तारित हुआ था जिन्हें पर्वतीय संघ कहते थे।

दूसरी शृंखला सिंधु नदी के दोनों तटों पर गिरि-गहवरों में बसने वाले महाबलशाली जातियों का था जिन्हें प्राचीनकाल में ग्रामणीय संघ कहते थे। वे ही वर्तमान के कबायली हैं। इनके संविधान का उतना अधिक विकास नहीं हुआ जितना अन्य गणराज्यों का। वे प्राय: उत्सेधजीवी या लूटमार कर जीविका चलानेवाले थे। इनमें भी जो कुछ विकसित थे उन्हें पूग और जो पिछड़े हुए थे उन्हें व्रात कहा जाता था।

(३.) संघ या गणों का एक तीसरा गुच्छा सौराष्ट्र में विस्तारित हुआ था। उनमें अंधकवृष्णियों का संघ या गणराज्य बहुत प्रसिद्ध था। कृष्ण इसी संघ के सदस्य थे अतएव शांतिपूर्व में उन्हें अर्धभोक्ता राजन्य कहा गया है। ज्ञात होता है कि सिंधु नदी के दोनों तटों पर गणराज्यों की यह शृंखला ऊपर से नीचे को उतरती सौराष्ट्र तक फैल गई थी क्योंकि सिंध नामक प्रदेश में भी इस प्रकर के कई गणों का वर्णन मिलता है। इनमें मुचकर्ण, ब्राह्मणक और शूद्रक मुख्य थे।

गणराज्य शासन की एक सुन्दर प्रक्रिया है । यह प्रक्रिया दोषपूर्ण भी है । गणराज्य के सुस्थिर होने के लिए आवश्यक है कि इसमें सबको समान अधिकार होने चाहिए । किसी को भी किसी कारणवश किसी प्रकार का उचित अथवा अनुचित पृथक् अधिकार नहीं देने चाहिए । जहाँ समानता नष्ट होती है, वहाँ गणराज्य के विनाश का बीज बो दिया जाता है ।

गणराज्य के चार प्रमुख कारण

(१.) गणराज्य में न्याय तुरन्त तथा सबके लिए एक समान होना चाहिए ।
(२.) गणराज्य में किसी भी व्यक्ति अथवा जाति को अपनी पृथक् न्याय प्रक्रिया के अनुसार न्याय करने का अधिकार नहीं होना चाहिए ।
(३.) न्याय प्रणाली स्पष्ट, सरल, कठोर तथा तुरन्त न्याय देने वाली होनी चाहिए ।
(४.) योग्य व्यक्ति के मुकाबले में अयोग्य को उपमा नहीं देनी चाहिए ।

प्राचीन भारत के गणराज्यों के विनाश के यही चार प्रमुख कारण रहे हैं ।

क्या हमारा भूत , भविष्यत् के लिए मार्गदर्शक नहीं बन सकता ? गणराज्यों के कारण ही शत्रु से मुकाबला न हो सका और सारा प्रदेश रौंद डाला गया ।
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