!!!---: वेदमन्त्रों का ऊटपटांग विनियोग :---!!!
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हमारे समाज में एक लोकोक्ति प्रसिद्ध है कि अल्प-ज्ञान मृत्यु का कारण होता है । लोग थोडी-संस्कृत जानकर लौकिक तो क्या, साधे वेद में घुस जाते हैं, लगते हैं ज्ञान का बखान करने । शेखी ऐसी बघारते हैं कि वेदों के प्रकाण्ड विद्वान् हो । इन जैसे लोगों ने वेदों के अर्थों का बहुत अनर्थ किया है । साथ ही वेद-मन्त्रों का ऊटपटांग विनियोग भी किया है । पुरातनी क्या आर्य पुरोहितों ने भी खूब हाथ चलाएँ हैं ।
आर्य पुरोहितों द्वारा चलाए गए नए विनियोगः----
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(क) शान्तिपाठः----
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पुराने वैदिक साहित्य में जैसे---उपनिषदों के प्रारम्भिक मंगलवाक्यों में और ऋषि दयानन्द के साहित्य में भी---शान्तिपाठ केवल इतना ही है---
"ओम् शान्तिः । शान्तिः । शान्तिः ।।"
यह जो शान्तिपाठ के लिए मन्त्र पढा जाता है---"द्यौः शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिः ।" यह अति प्रचलित हो गया है ।
आर्य समाजों में इस मन्त्र नाम ही "शान्तिपाठ" नाम पड गया है । महर्षि दयानन्द जी महाराज ने अपने समय में किसी भी अवसर पर इस मन्त्र का पाठ नहीं किया । पुना प्रवचन में ऋषि ने एक मन्त्र का प्रारम्भ इस मन्त्र से किया है । शान्तिकरण के मन्त्रों में यह मन्त्र "शन्नो देवी" के बाद और "तच्चक्षुर्देवहितम्" के बीच में पढा है ।
यह कहना बहुत कठिन है कि आर्य समाज में इस वेदमन्त्र का नाम "शान्तिपाठ" नाम कब और कैसे दिया गया और इसका प्रयोग कब से होने लगा । मन्त्र अनुपयुक्त नहीं है, इसमें सन्देह नहीं । कृष्णयजुर्वेदीय परम्परा में इससे भी लम्बे शान्तिपाठ के मन्त्र हैं । पर अनौचित्य यह है कि किसी यज्ञ या अधिवेशन की समाप्ति पर ही यह क्यों पढा जाए, प्रारम्भ या बीच में क्यों नहीं ।
(ख) सिक्खों (सरदारों) में स्यापा पढा जाता है । पंजाबी हिन्दुओं या आर्य समाजियों ने उनकी देखा-देखी आर्य समाजों में कुछ इस तरह से करने लगे । "स्वस्तिवाचन" और "शान्तिकरण" के पाठ का अलग-अलग समय निर्धारित कर दिया , अर्थात् इन दोनों का पाठ कब-कब किया जाए और कब नहीं किया जाए । इसका निश्चय किया गया है । यदि घर में मर जाए तो पंजाबियों ने पुराने "स्यापा" के स्थान में कई दिन "शान्तियज्ञ" कराना आरम्भ कर दिया है । इस अवसर पर वे यज्ञ में शान्तिकरण के मन्त्र पढते हैं ।
इसके विपरीत दूसरे शब्दों में , यदि कहीं शान्तिकरण के मन्त्र पढे जा रहे हों तो समझ जाइए कि इस घर में कोई मृत्यु हुई है ।
मृत्युञ्जय जाप करने-कराने की आर्य समाज की नई बीमारी---
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ऋषि दयानन्द जीवन के अन्तिम चरणों में घोर कष्टों से आक्रान्त रहे । अगर किसी ने कहा होता कि हम आपके नीरोग होने के लिए निम्न वेद-मन्त्र से मृत्युञ्जय जाप कराएँ, तो वे सचमुच आपको डाँटते-डपटते ।
यजुर्वेद के तीसरे अध्याय में दो मन्त्रों का एक युग्म है---
"त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ।।
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम् ।
उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीय मामुतः ।।"
(यजुर्वेदः---3.60)
ऋषि ने अपने साहित्य में मृत्युञ्जय जाप करने वाले इन मन्त्रों को कहीं भी उद्धृत नहीं किया । उनके साहित्य में ये दोनों मन्त्र उपेक्षित रहे हैं । कुछ वर्षों से यह देखा जा रहा है कि आर्य समाजों में इस मन्त्र का जोर-शोर से पाठ किया जा रहा है, साथ ही इस मन्त्र से आहुतियाँ दी रही हैं । अधिकतर आर्य जन जो पदाधिकारी भी होते हैं, अपने-अपने घरों में मृत्युञ्जय जाप करा रहे हैं , मन्दिरों में भी इस तरह का कार्यक्रम हो रहा है ।
ज्वालापुर वानप्रस्थ आश्रम में इस मन्त्र के जप ने एक नई जान फुँक दी है । दिल्ली, चण्डीगढ या मुम्बई में किसी का कोेई आत्मीय बीमार हुआ कि ज्वालापुर में उसके स्वस्थ होने के निमित्त इस मन्त्र से आहुतियों को देने का नाटक खेला जाने लगा ।
मृत्युञ्जय जाप की यह बीमारी विदेशों में भी पहुँच चुकी है । क्या आप इस आडम्बर से बच सकेंगे ?????
अभी और आडम्बर है आर्य समाजियों के, प्रतीक्षा कीजिए.....
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