!!!---: वेदमन्त्रों का ऊटपटांग विनियोग :---!!!
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वृष्टियज्ञ का व्यापारिक विनियोग
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कौन-सा युग था, जब अतिवृष्टि और अनावृष्टि का संकट न रहा हो, पर पिछले 30 वर्षों में पुरोहितों ने "वृष्टि-यज्ञ" कराने के जितने नाटक रचे हैं और जनता का जितना शोषण किया है, ऐसा वैदिक इतिहास में शायद ही कभी किया गया हो । वृष्टि-यज्ञ कराने वालों का एक समुदाय तैयार हो गया है और सम्पन्न धनी जनता इनके चंगुलों में फँस जाती है । आजकल नई-नई समिधाओं को खोज निकाला गया है जिनके धूम से बादलों का आह्वान कराया जाता है । नए विनियोग, नई सामग्री, और शोषण के नए तरीके ।
पारायणयज्ञ और पूर्णाहुति
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एक सत्य घटना सुनिए ।
मुंशी नारायण प्रसाद जी (महात्मा नारायण स्वामी जी) जब संन्यास की दीक्षा लेने लगे, तब उन्होंने विचार किया कि अब संन्यासाश्रम में यज्ञ कर नहीं सकते तो क्यों न अन्तिम बार विशेष यज्ञ कर लिया जाए ।
उन्होंने बडी धूमधाम से सम्पूर्ण यजुर्वेद के मन्त्रों से कई दिनों तक चलने वाला यज्ञ किया ।
संभवतः वे नहीं जानते थे कि जनता बडे लोगों का अनुकरण करती है । उनका अनुकरण करके लोगों ने एक नए यज्ञ को समुत्पन्न कर दिया---"पारायण-यज्ञ"
आर्य समाज में बडी-बडी यज्ञ-शालाओं का निर्माण हुआ और अब तो प्रत्येक वार्षिकोत्सव के पूर्व वेद-परायण-यज्ञ कराया जाता है और किसी पाँचवे, छठे या सातवें दिन एक उत्सव मनाया जाता है, जो पूर्व से निर्धारित वा घोषित रहता है---अमुक अमुक दिन "पूर्णाहुति" होगी---यजमान और जनता तैयार होकर आवे । यज्ञ के ब्रह्मा की झोली में काफी धन की वृष्टि होने लगती है ।
यह कुप्रथा अब इतनी प्रचलित हो गई है कि इसका बन्द किया जाना अंसंभव है ।
यह कुप्रथा विदेशों में भी पहुँच गई है । नैरोबी, अफ्रिका, मॉरीशस, नेपाल, में भी इसी तरह का पारायण-यज्ञ कराया जाने लगा है ।
पूर्णाहुति का सही अर्थः---
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"पूर्णाहुति" का केवल इतना ही अर्थ है कि चमसा पूरी तरह घृत से भरकर आहुति देना । यज्ञ की अन्तिम आहुति का नाम "पूर्णाहुति" नहीं है ।
ऋषि दयानन्द ने "संस्कारविधि" के सामान्य-प्रकरण में लिखा है---"निम्नलिखित मन्त्र से पूर्णाहुति करे"----स्रुवा को घृत से भरकर ।
लोगों ने ऋषि दयानन्द के इन शब्दों को भुला दिया---श्रुवा को घृत से भरकर---, यदि स्रुवा घृत से भरा न होगा, तो इस आहुति का नाम पूर्णाहुति न होगा । शब्द "पूर्णाहुति" का छः बार प्रयोग ध्रुव-दर्शन से पूर्व भी विवाह-संस्कार में हुआ ।
कह नहीं सकते कि हमारे पूर्णाहुति कराने वाले वाले नवीन याज्ञिक "पूर्णाहुति" शब्द के ठीक अर्थ को कभी स्वीकार करेंगे भी या नहीं ।
संन्यास प्रकरण में स्वामी दयानन्द ने "ओम् भूः स्वाहा" केवल इस एक मन्त्र से पूर्णाहुति करने का निर्देश दिया है । यह स्मरण रखना चाहिए कि अन्तिम आहुति का नाम पूर्णाहुति नहीं है । "पूरा चमचा भरके" जब-जब आहुति दी जाएगी वह पूर्णाहुति कहलावेगी ।
निन्दनीय विनियोग
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आजकल पूर्णाहुति के साथ एक और निन्दनीय विनियोग किया जाता है । सभी करते हैं पौराणिक भी आर्य समाजी भी ।
क्योंकि पूर्णाहुति में "पूर्ण" शब्द का प्रयोग हुआ है, अतः आजकल के कर्मकाण्डी अनेक मन्त्रों का पाठ करके (जिनमें पूर्ण शब्द आया हो) अपनी विशेष योग्यता व्यक्त करना चाहते हैं----जैसे (1.) पूर्णमदः पूर्णिमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते. (बृहदारण्यकोपनिषद्) (2.) पूर्णा दर्वि परापत सुपूर्णापुनरापत. (यजुर्वेद---3.49)
क्या हम आशा कर सकते हैं कि कर्मकाण्ड को नवीन विनियोगों के व्यर्थ बोझ से बचाया जा सकता है ।
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