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सोमवार, 25 अप्रैल 2016

वेदमन्त्रों का ऊटपटांग विनियोग

!!!---: वेदमन्त्रों का ऊटपटांग विनियोग :---!!!
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वृष्टियज्ञ का व्यापारिक विनियोग
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कौन-सा युग था, जब अतिवृष्टि और अनावृष्टि का संकट न रहा हो, पर पिछले 30 वर्षों में पुरोहितों ने "वृष्टि-यज्ञ" कराने के जितने नाटक रचे हैं और जनता का जितना शोषण किया है, ऐसा वैदिक इतिहास में शायद ही कभी किया गया हो । वृष्टि-यज्ञ कराने वालों का एक समुदाय तैयार हो गया है और सम्पन्न धनी जनता इनके चंगुलों में फँस जाती है । आजकल नई-नई समिधाओं को खोज निकाला गया है जिनके धूम से बादलों का आह्वान कराया जाता है । नए विनियोग, नई सामग्री, और शोषण के नए तरीके ।

पारायणयज्ञ और पूर्णाहुति
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एक सत्य घटना सुनिए ।

मुंशी नारायण प्रसाद जी (महात्मा नारायण स्वामी जी) जब संन्यास की दीक्षा लेने लगे, तब उन्होंने विचार किया कि अब संन्यासाश्रम में यज्ञ कर नहीं सकते तो क्यों न अन्तिम बार विशेष यज्ञ कर लिया जाए ।

उन्होंने बडी धूमधाम से सम्पूर्ण यजुर्वेद के मन्त्रों से कई दिनों तक चलने वाला यज्ञ किया ।

संभवतः वे नहीं जानते थे कि जनता बडे लोगों का अनुकरण करती है । उनका अनुकरण करके लोगों ने एक नए यज्ञ को समुत्पन्न कर दिया---"पारायण-यज्ञ"

आर्य समाज में बडी-बडी यज्ञ-शालाओं का निर्माण हुआ और अब तो प्रत्येक वार्षिकोत्सव के पूर्व वेद-परायण-यज्ञ कराया जाता है और किसी पाँचवे, छठे या सातवें दिन एक उत्सव मनाया जाता है, जो पूर्व से निर्धारित वा घोषित रहता है---अमुक अमुक दिन "पूर्णाहुति" होगी---यजमान और जनता तैयार होकर आवे । यज्ञ के ब्रह्मा की झोली में काफी धन की वृष्टि होने लगती है ।

यह कुप्रथा अब इतनी प्रचलित हो गई है कि इसका बन्द किया जाना अंसंभव है ।

यह कुप्रथा विदेशों में भी पहुँच गई है । नैरोबी, अफ्रिका, मॉरीशस, नेपाल, में भी इसी तरह का पारायण-यज्ञ कराया जाने लगा है ।

पूर्णाहुति का सही अर्थः---
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"पूर्णाहुति" का केवल इतना ही अर्थ है कि चमसा पूरी तरह घृत से भरकर आहुति देना । यज्ञ की अन्तिम आहुति का नाम "पूर्णाहुति" नहीं है ।

ऋषि दयानन्द ने "संस्कारविधि" के सामान्य-प्रकरण में लिखा है---"निम्नलिखित मन्त्र से पूर्णाहुति करे"----स्रुवा को घृत से भरकर ।

लोगों ने ऋषि दयानन्द के इन शब्दों को भुला दिया---श्रुवा को घृत से भरकर---, यदि स्रुवा घृत से भरा न होगा, तो इस आहुति का नाम पूर्णाहुति न होगा । शब्द "पूर्णाहुति" का छः बार प्रयोग ध्रुव-दर्शन से पूर्व भी विवाह-संस्कार में हुआ ।

कह नहीं सकते कि हमारे पूर्णाहुति कराने वाले वाले नवीन याज्ञिक "पूर्णाहुति" शब्द के ठीक अर्थ को कभी स्वीकार करेंगे भी या नहीं ।

संन्यास प्रकरण में स्वामी दयानन्द ने "ओम् भूः स्वाहा" केवल इस एक मन्त्र से पूर्णाहुति करने का निर्देश दिया है । यह स्मरण रखना चाहिए कि अन्तिम आहुति का नाम पूर्णाहुति नहीं है । "पूरा चमचा भरके" जब-जब आहुति दी जाएगी वह पूर्णाहुति कहलावेगी ।

निन्दनीय विनियोग
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आजकल पूर्णाहुति के साथ एक और निन्दनीय विनियोग किया जाता है । सभी करते हैं पौराणिक भी आर्य समाजी भी ।

क्योंकि पूर्णाहुति में "पूर्ण" शब्द का प्रयोग हुआ है, अतः आजकल के कर्मकाण्डी अनेक मन्त्रों का पाठ करके (जिनमें पूर्ण शब्द आया हो) अपनी विशेष योग्यता व्यक्त करना चाहते हैं----जैसे (1.) पूर्णमदः पूर्णिमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते. (बृहदारण्यकोपनिषद्) (2.) पूर्णा दर्वि परापत सुपूर्णापुनरापत. (यजुर्वेद---3.49)

क्या हम आशा कर सकते हैं कि कर्मकाण्ड को नवीन विनियोगों के व्यर्थ बोझ से बचाया जा सकता है ।



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सोमवार, 11 अप्रैल 2016

वेदमन्त्रों का ऊटपटांग विनियोग 5

!!!---: वेदमन्त्रों का ऊटपटांग विनियोग :---!!!
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हमारे समाज में एक लोकोक्ति प्रसिद्ध है कि अल्प-ज्ञान मृत्यु का कारण होता है । लोग थोडी-संस्कृत जानकर लौकिक तो क्या, साधे वेद में घुस जाते हैं, लगते हैं ज्ञान का बखान करने । शेखी ऐसी बघारते हैं कि वेदों के प्रकाण्ड विद्वान् हो । इन जैसे लोगों ने वेदों के अर्थों का बहुत अनर्थ किया है । साथ ही वेद-मन्त्रों का ऊटपटांग विनियोग भी किया है । पुरातनी क्या आर्य पुरोहितों ने भी खूब हाथ चलाएँ हैं ।

आर्य पुरोहितों द्वारा चलाए गए नए विनियोगः----
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(क) शान्तिपाठः----
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पुराने वैदिक साहित्य में जैसे---उपनिषदों के प्रारम्भिक मंगलवाक्यों में और ऋषि दयानन्द के साहित्य में भी---शान्तिपाठ केवल इतना ही है---

"ओम् शान्तिः । शान्तिः । शान्तिः ।।"

यह जो शान्तिपाठ के लिए मन्त्र पढा जाता है---"द्यौः शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिः ।" यह अति प्रचलित हो गया है ।

आर्य समाजों में इस मन्त्र नाम ही "शान्तिपाठ" नाम पड गया है । महर्षि दयानन्द जी महाराज ने अपने समय में किसी भी अवसर पर इस मन्त्र का पाठ नहीं किया । पुना प्रवचन में ऋषि ने एक मन्त्र का प्रारम्भ इस मन्त्र से किया है । शान्तिकरण के मन्त्रों में यह मन्त्र "शन्नो देवी" के बाद और "तच्चक्षुर्देवहितम्" के बीच में पढा है ।

यह कहना बहुत कठिन है कि आर्य समाज में इस वेदमन्त्र का नाम "शान्तिपाठ" नाम कब और कैसे दिया गया और इसका प्रयोग कब से होने लगा । मन्त्र अनुपयुक्त नहीं है, इसमें सन्देह नहीं । कृष्णयजुर्वेदीय परम्परा में इससे भी लम्बे शान्तिपाठ के मन्त्र हैं । पर अनौचित्य यह है कि किसी यज्ञ या अधिवेशन की समाप्ति पर ही यह क्यों पढा जाए, प्रारम्भ या बीच में क्यों नहीं ।

(ख) सिक्खों (सरदारों) में स्यापा पढा जाता है । पंजाबी हिन्दुओं या आर्य समाजियों ने उनकी देखा-देखी आर्य समाजों में कुछ इस तरह से करने लगे । "स्वस्तिवाचन" और "शान्तिकरण" के पाठ का अलग-अलग समय निर्धारित कर दिया , अर्थात् इन दोनों का पाठ कब-कब किया जाए और कब नहीं किया जाए । इसका निश्चय किया गया है । यदि घर में मर जाए तो पंजाबियों ने पुराने "स्यापा" के स्थान में कई दिन "शान्तियज्ञ" कराना आरम्भ कर दिया है । इस अवसर पर वे यज्ञ में शान्तिकरण के मन्त्र पढते हैं ।

इसके विपरीत दूसरे शब्दों में , यदि कहीं शान्तिकरण के मन्त्र पढे जा रहे हों तो समझ जाइए कि इस घर में कोई मृत्यु हुई है ।

मृत्युञ्जय जाप करने-कराने की आर्य समाज की नई बीमारी---
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ऋषि दयानन्द जीवन के अन्तिम चरणों में घोर कष्टों से आक्रान्त रहे । अगर किसी ने कहा होता कि हम आपके नीरोग होने के लिए निम्न वेद-मन्त्र से मृत्युञ्जय जाप कराएँ, तो वे सचमुच आपको डाँटते-डपटते ।

यजुर्वेद के तीसरे अध्याय में दो मन्त्रों का एक युग्म है---

"त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ।।

त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम् ।
उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीय मामुतः ।।"
(यजुर्वेदः---3.60)

ऋषि ने अपने साहित्य में मृत्युञ्जय जाप करने वाले इन मन्त्रों को कहीं भी उद्धृत नहीं किया । उनके साहित्य में ये दोनों मन्त्र उपेक्षित रहे हैं । कुछ वर्षों से यह देखा जा रहा है कि आर्य समाजों में इस मन्त्र का जोर-शोर से पाठ किया जा रहा है, साथ ही इस मन्त्र से आहुतियाँ दी रही हैं । अधिकतर आर्य जन जो पदाधिकारी भी होते हैं, अपने-अपने घरों में मृत्युञ्जय जाप करा रहे हैं , मन्दिरों में भी इस तरह का कार्यक्रम हो रहा है ।


ज्वालापुर वानप्रस्थ आश्रम में इस मन्त्र के जप ने एक नई जान फुँक दी है । दिल्ली, चण्डीगढ या मुम्बई में किसी का कोेई आत्मीय बीमार हुआ कि ज्वालापुर में उसके स्वस्थ होने के निमित्त इस मन्त्र से आहुतियों को देने का नाटक खेला जाने लगा ।

मृत्युञ्जय जाप की यह बीमारी विदेशों में भी पहुँच चुकी है । क्या आप इस आडम्बर से बच सकेंगे ?????



अभी और आडम्बर है आर्य समाजियों के, प्रतीक्षा कीजिए.....


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