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सोमवार, 7 मार्च 2016

वेदमन्त्र और उसका विनियोग 3

!!!---: वेदमन्त्र और उसका विनियोग :---!!!
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हम गत लेखों में यह बताते आ रहे हैं कि वेदमन्त्रों का विनियोग केवल वैदिक विद्वान् और वह भी केवल ऋषि ही कर सकते हैं । जब-जब संसारी लोगों ने वेदमन्त्रों का विनियोग करना शुरु किया है, तब-तब वैदिक साहित्य का ह्रास हुआ है । अन्धविश्वास बढा है, बाह्य-आडम्बर का बोलबाला हुआ है, ढोंग को बढावा मिला है ।

यह विनियोग न केवल पौराणिकों ने किया है, अपितु आर्य पुरोहितों ने भी बडे स्तर पर किया है ।

"भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवाः" इस वेदमन्त्र का विभिन्न प्रकार से विनियोग किया गया है । इसका कर्णवेध संस्कार में विनियोग किया गया है । आँखों में अंजन लगाते समय या ऐनक लगाते समय भी इसका विनियोग किया जा सकता है । कर्णवेध संस्कार में केवल "कर्ण" शब्दमात्र का ध्यान रखा गया है ।

यजुर्वेद-संहिता के साथ विनियोग करके बहुत ही दूषित और कलंकित व्यवहार किया गया है । यजुर्वेद मुख्यतः कर्मप्रेरक है, कर्मकाण्ड-प्रेरक नहीं है ।

"कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः ।" यहाँ कर्म का अर्थ कर्मकाण्ड नहीं है । पर परम्परा के आचार्यों ने यजुर्वेद के प्रत्येक मन्त्र या कण्डिका को किसी-न-किसी विनियोग के साथ ऐसा जकडा कि शतपथ-ब्राह्मण की परम्परा के बाद वह "कर्मकाण्डीय" वेद ही रह गया ।

यजुर्वेद के कर्मकाण्डीय रूप से हम आज भी मुक्त नहीं हो पा रहे हैं । इसका मुख्य कारण वे कुछ प्रतीकें हैं, जो आज भी मन्त्र का भाग बनी हुई खटक रही हैं ।

एक उदाहरण देखिएः---

"नैनमूर्ध्वं न तिर्यञ्च न मध्ये परिजग्रभत् ।"
"न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यशः ।"

श्वेताश्वतर उपनिषद् (4.19) में इन दोनों मन्त्रों को मिलाकर एक छन्द बना दिया गया है ।

पर याज्ञिकों के यजुर्वेद-संहिता के वर्त्तमान पाठ में ( 32 वें अध्याय में) तीसरा मन्त्र इस प्रकार दिया गया हैःः---

"न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यशः ।"
हिरण्यगर्भ इत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान्न जात इत्येषः"।

वस्तुतः इन प्रतीकों का अर्थ कर्मकाण्डीय आचार्यों के लिए यह है कि "न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यशः ।" इतना पढने के बाद निम्न प्रतीकों वाले मन्त्र फिर पढो, जिनका उल्लेख पिछले कतिपय अध्यायों में हो चुका हैः--

"(1.) हिरण्यगर्भः"
(2.) मा मा हिंसीज्जनिता"
(3.) यस्मान्न जात"

महीधर और उव्वट ने भी इन प्रतीकों को "न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यशः ।" वाले मन्त्र का भाग बनाकर रखा है । ऋषि दयानन्द ने इन प्रतीकों के अक्षरों को गिनकर सम्पूर्ण वर्त्तमान मन्त्र का छन्द भी "निचृद् पंक्ति" में घोषित कर दिया है ।

साधारणतया यह माना जाता है कि ऋग्वेद की ऋचाएँ ज्ञान की प्रेरक हैं और यजुर्वेद के मन्त्र या कण्डिकाएँ (यजूँषि) कर्म की । पर इतिहास में ऐसा कुछ नहीं है , जिसने इस नियम का पालन किया हो । आर्य-विद्वज्जन वेदों के नाम पर बँट गए हैं---उनमें प्रतिस्पर्धा आरम्भ हो गई है । ऐतरेय-ब्राह्मण ऋग् वाले समुदाय से सम्बन्ध रखता था । ऋग्वेद के मन्त्रों का विनियोग करके कर्मकाण्डियों ने ऋग्वेद की भी वही दुर्दशा की जो यजुर्वेद की हुई थी । ऋग्वेद के मन्त्रों का भी विनियोग तरह-तरह के यज्ञों में किया जाने लगा । इस प्रकार ऋग्वेद भी विनियोगों से प्रदूषित हुए विना बच न सका ।

अगला भाग शीघ्र ही----

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