!!!---: वेदमन्त्र और उसका विनियोग :---!!!
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इस शृंखला में हम चौथा लेख लिख रहे हैं । वेदों के सम्बन्ध में हम सब बहुत संवेदनशील होते हैं । एक वेद ही है जो सम्पूर्ण मानव को एक बनाता है । हिन्दू और आर्य केवल इसी वेद के आधार पर एक हैं, अन्यथा आर्यों से हिन्दुओं की क्या तुलना ।
प्रत्येक व्यक्ति वेद के सम्बन्ध में अपना ज्ञान बाँटना चाहता है । लोग थोडा-बहुत पढकर वेद का ज्ञान बाँटते हैं । मन्त्रों का विनियोग भी करते हैं । किन्तु अधूरा ज्ञान वेद को दूषित कर देता है । यही काम हुआ विनियोग के सम्बन्ध में ।
यह स्मरण रखने की बात है कि मन्त्रों का विनियोग करने वाला व्यक्ति कोई धुरन्धर आचार्य नहीं होता । "विनियोग करने वाले सदा ही साधारण व्यक्ति रहे है, पर आजकल के पुरोहितों के समान साधारण सम्पन्न जनता पर इनका चमत्कारपूर्ण प्रभाव रहता है, बाद में तो पता भी नहीं चलता कि विनियोग करने वाला कौन व्यक्ति था । उसने जिस ओर हवा बहा दी , उसका प्रतिकार करना आचार्य व पण्डित के आचार्यत्व और पाण्डित्य की शक्ति से बाहर हो जाता है । आज भी आर्य समाज में साधारण व्यावसायिक पुरोहितों के विनियोगों का निषेध करना "अरण्य-रोदन" मात्र होगा ।
स्वामी दयानन्द के बाद आर्य समाज में प्रचलित नए विनियोगः---
1883 में ऋषि दयानन्द का निधन हुआ । ऋषि दयानन्द ने हमें कर्मप्रेरक पञ्चमहायज्ञ विधि दी थी, और संस्कारों के लिए कर्मकाण्डीय संस्कार-विधि ।
आज आवश्यकता इस बात की है कि हम सबको इन्हीं होनों के आधार अपने कर्मकाण्ड को सीमित रखना चाहिए । ये दोनों ग्रन्थ प्रेरणा के स्रोत हैं ।
हमें याद रखना चाहिए कि
(1.) संस्कार विधि का सामान्य प्रकरण केवल संस्कारों के लिए हैं न कि दैनिक या साप्ताहिक यज्ञों के लिए ।
(2.) सामान्य प्रकरण में जो मन्त्र पढे याएँगे, वे यजमान पढेगा ।
(3.) कौन-सा मन्त्र कब किस स्थल पर पढा जाता है, इसका उल्लेख ऋषि ने संस्कारों का उल्लेख करते समय किया है ।
(4.) "भूर्भुवः स्वः" प्रतीक से प्रारम्भ होने वाले मन्त्र विशेष संस्कारों (चौल, समावर्त्तन और विवाह ) में ही पढे जाने को हैं.----सर्वत्र नहीं । आजकल आर्य समाजों में यह परम्परा चल पडी है कि प्रत्येक संस्कार में ये मन्त्र पढे जा रहे हैं ।
(5.) संस्कार के अन्त में सब मिलकर बच्चों को (जिसका संस्कार है) आशीर्वाद देते हैं । यजमान को कभी आशीर्वाद नहीं दिया जाता । आजकल यजमान को भी आशीर्वाद दिया जाता है । आदत ऐसी हो गई है कि अब यजमान भी स्वयं आशीर्वाद की माँग करने लगे हैं । न दो तो बुरा बनाते हैं ।
(6.) किसी यज्ञ में एक से अधिक यजमान नहीं वरण किए जाते । किन्तु इस नियम का धडले से उल्लंघन किया जा रहा है । एक यज्ञ में एक से अधिक यजमान बनाए जा रहे हैं ।
"सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः" (यजुर्वेदः--12.44) इस मन्त्रांश से आशीर्वाद देने का विनियोग ऋषि दयानन्द ने कहीं भी प्रतिपादित नहीं किया । किन्तु पुरोहित अपने महान् ज्ञान का प्रयोग करते हुए अधिक यजमान होने पर इस वेद-मन्त्र को त्रुटित करके बहुवचन (यजमानाम् ) का प्रयोग करते हैं । यह तो वेदमन्त्रों के साथ सरासर धोखा है कि आप स्वयं वेदमन्त्र को बिगाड रहे हैं ।
एक यज्ञ में ऋत्विक् अनेक हो सकते हैं (अधिक से अधिक चार और चारों के कुछ सहायक ऋत्विक् भी) पर यजमान तो एक ही होता है । "विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत ।" (यजुर्वेदः---18.61)
अग्रिम लेख में बतायेंगे कुछ नए विनियोग ।।
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