वेदों का आविर्भाव कर्म और कर्मयोग के लिए हुआ है । वेदों को समझने के लिए एवं सृष्टि एवं सर्वनियन्ता को समझने के लिए ऋषियों ने वेदाङ्गों की रचना की । इसी परम्परा में उपाङ्गों, उपवेद, आरण्यक, उपनिषद् और ब्राह्मण-ग्रन्थों की रचना हुई ।
कर्म और कर्मयोग के फलस्वरूप समाज समृद्ध और सम्पन्न बना । इस समृद्धि के बाद से ही कर्मकाण्ड का बीजारोपण हुआ । कर्म और कर्मयोग समाज का विकास करता है, किन्तु कर्मकाण्ड अविकास करता है ।
कोई भी ऋचा कर्मकाण्ड प्रेरक नहीं है । प्राचीन ऋषियों की भी यही मान्यता थी । ऋषिवर दयानन्द जी की भी यही मान्यता थी । इसीलिए ऋषि दयानन्द ने वेदभाष्य को कर्मकाण्ड से सर्वथा मुक्त रखा । वेदार्थ जितना भी यौगिक और योगरूढ रहेगा, भाष्य उतना यथार्थ होगा । वेदभाष्य जितना भी विनियोग परक होगा वह उतना ही वेद के अभिप्राय से और यथार्थ से दूर होगा । योगी अरविन्द ने ऋषि दयानन्द के इस दृष्टिकोण की हृदय से प्रशंसा की । इसके विपरीत रावण, उव्वट, महीधर, कात्यायन, सायण आदि वेदभाष्यकार के भाष्य यथार्थ से बहुत दूर रहा ।
"विनियोग" इतिहास से सम्बन्ध रखता है । यह इतिहास कालान्तर में विकसित हुआ है । चारों वेद संहिताएँ विनियोग से मुक्त है । किन्तु कालान्तर में वेदमन्त्रों का विनियोग करके संहिताओं को भ्रष्ट और अपमानित किया गया । विनियोग की प्रधानता हो गई और संहिताएँ कमजोर पड गईं ।
प्रचीन काल में विनियोग दो आधार पर किया जाता थाः---(क) रूप के आधार पर (2.) रूपसमृद्धि न होने पर ।
(क) "शन्नो देवीरभिष्टये." इस मन्त्र में "आपः" (जल) की रूप समृद्धि है, अतः इस मन्त्र का विनियोग आचमन और स्नान के लिए किया गया है ।
(ख) कुछ मन्त्रों में किसी प्रकार की रूप समृद्धि नहीं होती , इसलिए ऐसे मन्त्रों का किसी कर्म में विनियोग नहीं किया जा सकता । "गायत्री-मन्त्र" ऐसा ही मन्त्र है । इसमें रूप-समृद्धि का नितान्त अभाव है । कभी किसी काल में किसी पुरोहित ने इस मन्त्र का विनियोग संध्या के समय चोटी बाँधने में कर दिया । वह प्रक्रिया चल पडी । यह उचित नहीं है । इसी प्रकार घर में शव (मुर्दा) पडा हुआ है। जब तक वह श्मशान-घाट पर नहीं पहुँच जाता, उसके चारों ओर बैठकर "विश्वानि देव." आदि आठ मन्त्रों का लगातार पाठ करना अनुचित है । इनमें रूप-समृद्धि का अभाव है । यह प्रक्रिया के विपरीत है । इसमें भी किसी पुरोहित ने देखा कि खाली बैठे हैं, तो क्या करें, उन्होंने आठ मन्त्रों का पाठ शुरु कर दिया । बस, फिर क्या था, समाज में एक परम्परा ही बन गई । अब जब भी किसी के घर में किसी की मृत्यु होती है, तो विश्वानि देव. का पाठ शुरु हो जाता है । यह वेद-मन्त्रों का अशोभनीय विनियोग है ।
यह तो ऐसा ही है ---राजनैतिक नेताओं वाली प्रथा ---"रघुपति राघव राजा राम"----है । नकलमात्र है ।
"गायत्री-मन्त्र" स्वयं में एक विशेष अर्थ रखता है, पर किसी कर्म में इसका विनियोग करके इसके अभिप्राय को समाप्त कर दिया गया है ।
यह लेख बडा है, इसलिए थोडा-2 करके छोटी-2 पोस्टों में इसे लिखा जाएगा ।
इस लेख में यह भी बताया जाएगा कि पौराणिकों की तरह आर्य पुरोहितों ने भी गलत विनियोग किया है ।
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