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शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

वराह-शब्द का वैदिक अर्थ

!!!---: वराह-शब्द का वैदिक अर्थ :---!!!
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पुराणों में विष्णु के २४ अवतार बताएँ हैं । वराह भी उनमें से एक है । वैदिक ग्रन्थों में भी वराह शब्द का विस्तृत विवेचन हुआ है, किन्तु पुराण के रचयिता ने इस शब्द का अनर्थ किया है । इसलिए पौराणिक जन वराह का भिन्न अर्थ ग्रहण करते हैं । दूसरी ओर आर्य विचारधारा वाले वराह के वैदिक अर्थ को ग्रहण करते हैं, जिससे दोनों में मतभेद है । वस्तुतः वराह शब्द का आलंकारिक वर्णन हुआ है, वैदिक-साहित्य में ।

इसका वैदिक स्वरूप क्या है ? इस विषय पर हम विस्तृत लेख लिख रहे हैं । आशा है,, आप इसे पूरा पढकर उचित टिप्पणी करेंगे ।

वराह का पृथिवी-उद्धारः----
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विष्णु ने वराह रूप धारण करके जलनिमग्ना पृथिवी का उद्धार किया, भारतीय वैदिक तथा लौकिक उभयविध वाङ्मय में यह घटना सुप्रसिद्ध है ।

वराह शब्द का मूल अर्थ
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वराह शब्द का अर्थ है---वर (जल) को आहरण करने वाला अथवा नष्ट करने वाला । निघण्टु (१.१२) में वाः (वर) उदकनामों में पठित है । इससे इसका जल अर्थ है । इस मूल यौगिक अर्थ की दृष्टि से वराह शब्द वैदिक वाङ्मय में उन सभी पदार्थों के लिए प्रयुक्त हुआ है जो जल प्लावन के पश्चात पृथिवीस्थ जल को आहृत अथवा दूर करके जल निमग्ना पृथिवी को जल से बाहर निकालने में सहायक हुए ।

वराह के वैदिक अर्थ देखिए, वराह ने पृथिवी का उद्धार भी किया------

(१.) वराह नाम मेघ का है । निघण्टु (१.१०) में वराह पद मेघ नामों में पठित है । निरुक्त (५.४) में लिखा है---

"वराहो मेघो भवति, वराहारः ।" अर्थात् वराह मेघ होता है । वर (जल) को आहरण करने वाला है ।

जल-प्लावन के पश्चात सूर्य की किरणों से पृथिवी का जल मेघ रूप में ऊपर उठने लगा । जल के न्यून होने से पृथिवी बाहर निकली ।

ऋग्वेद ८.७७.१० में एक मन्त्र आया है---
"विश्वेत्ता विष्णुराभरद् उरुक्रमस्त्वेषितः ।
शतं महिषान् क्षीरपाकमोदनं वराहमिन्द्र एमुषम् ।।"

अर्थः---उन सबको उरुविक्रम तेजस्वी विष्णु ने आहरण किया । सैकडों महिषों (मेघ विशेषों) और क्षौर को पकाने और पृथिवी को गीला करने में समर्थ एमुष वराह (मेघ विशेष) को इन्द्र ने ।

एसी एमुष (एमूष) वराह के द्वारा पृथिवी का उद्धार का वर्णन शतपथ-ब्राह्मण में आया हैः---

"इयती ह वा इयमग्र पृथिव्यास प्रादेशमात्री, तामेमूष इति वराह उज्जघान, सोSस्याः (पृथिव्याः) पतिः प्रजापतिः ।।" (श.प.ब्रा. १४.१.२.११)

अर्थः---इतनी ही यह पृथिवी पहले थी प्रादेश (१० अंगुल) परिमाण वाली । उसको एमूष नाम वाले वराह ने ऊपर को प्राप्त कराया । वह इस पृथिवी का पति प्रजापति है ।

ऋग्वेद में "एमुष" और शतपथ में "एमूष" विशेषण होने से स्पष्ट है कि यह वराह सामान्य मेघ नहीं थे । एमुष अथवा एमूष पद का अर्थ है----आ (सब ओर से) ईम (जल को (अपने अन्दर), उष अथवा ऊष (वस निवासे) बसाने वाला । अर्थात् जलप्लावन की महान् जल राशि को अपने अन्दर समेट लेने वाला महामेघ ।

तैत्तिरीय आरण्यक १.९.४--५ में सप्तविध मेघों में "वराहु नामक मेघों का वर्णन मिलता है----

"वराहवः स्वतपसो विद्युतो महसो धूपयः स्वापयो गृहमेधाश्चेत्येते......पर्जन्याः सप्त पृथिवीमभिवर्षन्ति वृष्टिभिः ।।"

सम्भवतः वराह और वराहु एकार्थक है ।

वराह की उत्पत्ति
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इस मेघ रूपी वराह की उत्पत्ति के विषय में शतपथ-ब्राह्मण में आया हैः---

"अग्नौ ह वै देवा घृतकुम्भं प्रवेशयां चक्रुस्ततो वराहः सम्बभूव । तस्माद् वराहो मेदुरो घृताद्धि सम्भूतः । तस्माद् वराहे गावः संजानते ।।" (श.प.ब्रा. ५.४.३.१९)

अर्थः---अग्निः (सूर्याग्नि) में देवों (मरुत आदि सहायकों) ने घृतकुम्भ (स्निग्ध) जलसमूह को प्रविष्ट किया । उससे वराह उत्पन्न हुआ । इसीलिए वराह अधिक मेद वाला है, (क्योंकि) वह घृत से उत्पन्न हुआ है । इसीलिए वराह में गौवें (किरणें)....


इस वराह का विस्तार
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वायु पुराण (६.१२) के अनुसार यह वराह दश योजन विस्तीर्ण , शत योजन उच्छ्रित अथवा ऊँचा था । अतः यह वराह पशु नहीं था, मेघ रूपी वराह था ।

(२.) जल के भीतर दूर तक प्रविष्ट होकर जल को आहरण करने वाली अङ्गिरस नामक सूर्य की किरणें (ऋग्वेदः--१०.६७.२) भी वराह कहाती है । उदारधी यास्काचार्य ने "अङ्गिरसोSअपि वराहा उच्यन्ते" लिखकर निम्न मन्त्र उद्धृत किया है---

"स ईं सत्येभिः सखिभिः शुचद्भिर्गोधायसं वि धनसैरदर्दः ।
ब्रह्मणस्पतिर्वृषभिर्वराहैर्घर्मस्वेदेभिर्द्रविणं व्यानट् ।।" (ऋग्वेदः--१०.६७.७)

अर्थः---यह (ब्रह्मणस्पति) सत्य दीप्तियुक्त धनस सखाओं से किरणों को धारण करने वाले जलों को विभक्त करता है । ब्रह्मणस्पति वृष्टि करने वाले घर्मस्वेदित होने वाले वराहों से जलों को विशेष रूप से अदृष्ट करता है (नष्ट करता है ) ।

काठक संहिता में भी आया है---

"आपो वा इदमासन् सलिलमेव । स प्रजापतिर्वराहो भूत्वा उफन्यमञ्जत् । तस्य यावन्मुखमासीत् तावतीं मृदमुदहरत् । यद् वराहविहृतं भवति ।।" (का.सं. ८.२)

आपः निश्चय से ये सलिल (जिसमें सब लीन हो) ही । वह प्रजापति वराह (वर--(जल) का आहरण करने वाला) होकर (सलिल में) अधिक दूर तक डूबा । उसका जितना मुख था, उतनी मिट्टी को बाहर निकाला । वह यह पृथिवी हुई । जो वराह से खोदी हुई होती है (अग्न्याधान के समय अग्निः के स्थान में डालने योग्य मिट्टी) ।

तैत्तिरीय-ब्राह्मण (१.१.३.६) में भी यही भाव प्रकट हुआ हैः---

"स (प्रजापतिः) वराहो रूपं कृत्वोपन्यमज्जत् । स पृथिवीमध आर्छत् । तस्या उपहत्योदमज्जत् । तत् पुष्करपर्णे प्रथयत् । तत् पृथिव्यै पृथिवित्वम् ।।"

अर्थः---वह (प्रजापति सूर्य) निश्चय से वराह का रूप करके (जल में) दूर तक डूबा । वह पृथिवी के नीचे प्राप्त हुआ, उसके.....बाहर निकला । उसे पुष्करपर्ण पर फैलाया, वही पृथिवी का पृथिवीत्व है ।

(३.) जल को आहरण करने वाले (सुखाने वाले) वायु मरुत भी वराह कहाते हैं .....वायु पुराण अध्याय ८ में लिखा हैः---

"ब्रह्मा तु सलिले तस्मिन् वायुर्भूत्वा तदाचरन् ।।२।।
स तु रूपं वराहस्य कृत्वापः प्राविशत् प्रभुः ।
अद्भिः संछादितामुर्वी समीक्ष्याथ प्रजापतिः ।।७।।
उद्धृत्योर्वीमथाद्भ्यस्तु अपस्तासु स विन्यसन् ।।८।।

अर्थः--उस सलिल पर ब्रह्मा वायु होकर विचरता हुआ, वराह रूप धारण करके अपों में प्रविष्ट हुआ । प्रजापति ने जल से ढकी हुई पृथिवी को देखकर जल से बाहर निकाला ।

पहले लिखा गया है कि वराह और वराहु एकार्थक है । इसी दृष्टि से आचार्य यास्क ने लिखा है---

"अथाप्येते माध्यमिका देवगणा वराहव उच्यन्ते ।।"

अर्थः---और भी ये मध्यम स्थान वाले देवगण "वराहु" कहाते हैं । यास्क मरुत् वाचक वराहु के लिए ऋग्वेद १.८८.५) का मन्त्र उद्धृत करते हैं ।।


जलप्लावन के समय पृथिवी का अत्यल्प भाग ऊपर रह गया था । मेघ बनने के पश्चात् पृथिवी बाहर आई ।

महाभारत में लिखा हैः---

"वाराहं रूपमास्थाय मयेयं जगती पुरा ।
मज्जमाना जले विप्र वीर्येणासीत् समुद्धृता ।।" (वनपर्व--१९२.११)

तथा

"वाराहं रूपमास्थाय मही सवनपर्वताम् ।
उद्धरत्येकदंष्ट्रेण तस्मै क्रीडात्मने नमः ।।" (शान्तिपर्व--४६.९४)

और वन पर्व के जयद्रथ विमोक्षण अवान्तर पर्व २७३, श्लोक---४९--५६ तक में एकार्णव के पश्चात् वराह द्वारा पृथिवी का उद्धार लिखा है ।

"चतुर्युगसहस्रान्ते सलिलेनाप्लुता मही । (वनपर्व---२७३.३८)
"एवमेकार्णवे जाते चाक्षुषान्तरसंक्षये ।।" (मत्स्य, अ. २)

महाभारत और पुराण के पूर्वोक्त प्रमाणों में कहा गया है कि वराह ने पृथिवी का जल से उद्धार किया । यह घटना जलप्लावन के सद्यः पश्चात् की है ।

ऐसी ही एक घटना जलप्लावन के बहुत काल पश्चात् की भी है । तीसरा देवासुर संग्राम वराह नाम से विख्यात है । वराह नाम का एक असुर था, जो उस युद्ध में मारा गया । उस समय वराह ने अपनी दंष्ट्रा से समुद्र के दो भाग कर दिए थे----

"हिरण्याक्षो हतो द्वन्द्वे प्रतिषाते तु दैवतैः ।
दंष्ट्रया तु वराहेण समुद्रस्तु द्विधा कृतः ।।" (मत्स्य--४७.४७)

इसका अभिप्राय यह है कि जब पाताल देश के समीप का कोई समुद्र दो भागों में विभक्त हुआ तो उत दोनों भागों के मध्य में जो भूमि निकली वह वराहाकारा थी ।


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मंगलवार, 27 दिसंबर 2016

वैदिक सभ्यता

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ऋग्वैदिक काल (1500 ई.पू. से 1000 ई.पू.)

वैदिक सभ्यता के निर्माता
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वैदिक सभ्यता के संस्थापक आर्य थे। आर्यों का आरंभिक जीवन मुख्यतः कृषि और पशुचारण था। वैदिक सभ्यता मूलतः ग्रामीण व अरण्य थी।

वैदिक सभ्यता की जानकारी के स्रोत वेद हैं। इसलिए इसे वैदिक सभ्यता के नाम से जाना जाता है।

आर्यों ने अनेक ग्रन्थों की रचना की जिनमें वैदिक ग्रन्थ, उपनिषद्, आरण्यक, ब्राह्मण, दर्शन, उपवेद, उपांग, वेदांग आदि थे । ऋग्वेद को मानव जाति का प्रथम ग्रन्थ माना जाता है। ऋग्वेद द्वारा जिस काल का विवरण प्राप्त होता है उसे ऋग्वैदिक काल कहा जाता है।

ऋग्वेद भारत-यूरोपीय भाषाओं का सबसे पुराना निदर्श है। इसमें अग्नि, इंद्र, मित्र, वरुण, आदि देवताओं की स्तुतियाँ संगृहित हैं।

आर्यों का मूल निवास आर्यावर्त्त (भारतवर्ष) था । ये संसार के विभिन्न देशों में जाकर बस गए । बाद में ये शिक्षा ग्रहण करने हेतु वापस भारत भी आए । मूर्ख इतिहासकार इसे ऐसा मानते हैं कि आर्यों का मूल स्थान मध्य एशिया था । और इनका भारत आगमन लगभग 1500 ई.पू. के आस-पास मानते हैं जो सर्वथा झूठ है । आर्य तो इस सृष्टि के प्रारम्भ से ही है । आर्यों के भारत आगमन का इन झुठे इतिहासकारों के पास कोई ठोस और स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं है।

आर्यों के मूल निवास के सन्दर्भ में विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग विचार व्यक्त किये हैं।

विद्वान्----------------आर्यों का मूल निवास स्थान
दयानंद सरस्वती-------तिब्बत
प्रो. मैक्समूलर------ मध्य एशिया
पं. गंगानाथ झा------ ब्रह्मर्षि देश
गार्डन चाइल्ड------ दक्षिणी रूस
बाल गंगाधर तिलक----- उत्तरी ध्रुव
गाइल्स-------- हंगर एवं डेन्यूब नदी की घाटी
डॉ. अविनाश चन्द्र------ सप्त सैन्धव प्रदेश
प्रो. पेंक----- जर्मनी के मैदानी भाग

भौगोलिक विस्तार
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ऋग्वेद में नदियों का उल्लेख मिलता है। नदियों से आर्यों के भौगोलिक विस्तार का पता चलता है।

आर्य त्रिविष्टप से नीचे उतरकर सर्वप्रथम सप्त-सैंधव प्रदेश में आकर बसे । त्रिविष्टप उस समय आर्यावर्त्त का एक अंग था । सप्त सिन्धु प्रदेश में प्रवाहित होने वाली सप्त नदियों का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है।

ऋग्वैदिक काल की सबसे महत्वपूर्ण नदी सिन्धु का वर्णन कई बार आया है। ऋग्वेद में गंगा का एक बार और यमुना का तीन बार उल्लेख मिलता है।

ऋग्वेद की सबसे पवित्र नदी सरस्वती थी। इसे नदीतमा (नदियों की प्रमुख) कहा गया है।

सप्तसैंधव प्रदेश के बाद आर्य कुरुक्षेत्र के निकट आकर बस गए । उस क्षेत्र को ‘ब्रह्मवर्त’ कहा जाने लगा। यह क्षेत्र सरस्वती व दृशद्वती नदियों के बीच पड़ता है।

ऋग्वैदिक नदियाँ
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प्राचीन नामः----- आधुनिक नाम
शुतुद्रिः-------सतलज
असिक्नी------चिनाब
विपाशा-------व्यास
कुभा--------काबुल
सदानीरा----गंडक
सुवस्तु--- स्वात
पुरुष्णी--- रावी
वितस्ता--- झेलम
गोमती---- गोमल
दृशद्वती--- घग्घर
कृमु----कुर्रम

जैसे-जैसे आर्यों की जनसंख्या बढती गई, वैसे-वैसे आर्य आगे बढते गए । इस प्रकार वे गंगा एवं यमुना के दोआब क्षेत्र एवं उसके सीमावर्ती क्षेत्रों की ओर बढते गए । इसे ‘ब्रह्मर्षि देश’ कहा गया।

इसके बाद वे हिमालय और विन्ध्याचल पर्वतों के बीच के क्षेत्र की ओर बढे और उस क्षेत्र का नाम ‘मध्य देश’ रखा।

कालांतर में आर्यों ने सम्पूर्ण उत्तर भारत में अपना विस्तार किया, जिसे ‘आर्यावर्त’ कहा जाता था।

राजनीतिक व्यवस्था
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आर्यों ने अपने देश की सीमा का विस्तार बहुत दूर तक किया । ऋग्वेद में आर्यों के पांच कबीलों का उल्लेख मिलता है- पुरु, युद्ध, तुर्वसु, अजु, प्रह्यु। इन्हें ‘पंचजन’ कहा जाता था।

ऋग्वैदिक कालीन राजनीतिक व्यवस्था स्थिर थी । ऋग्वैदिक लोग जनों या गणों में विभाजित थे। प्रत्येक गण का एक राजा होता था, जिसे ‘गोप’ कहा जाता था।

ऋग्वेद में राजा को गणका संरक्षक (गोप्ता जनस्य) तथा पुरन भेत्ता (नगरों पर विजय प्राप्त करने वाला) कहा गया है।

राजा के कुछ सहयोगी दैनिक प्रशासन में उसकी सहायता करते थे। ऋग्वेद में सेनापति, पुरोहित, ग्रामणी , पुरुष, स्पर्श, दूत आदि शासकीय पदाधिकारियों का उल्लेख मिलता है।

शासकीय पदाधिकारी राजा के प्रति उत्तरदायी थे। इनकी नियुक्ति तथा निलंबन का अधिकार राजा के हाथों में था।

ऋग्वेद में सभा, समिति, विदथ जैसी अनेक परिषदों का उल्लेख मिलता है।
ऋग्वैदिक काल में महिलाएं भी राजनीति में भाग लेती थीं। सभा एवं विदथ परिषदों में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी थी।

सभा श्रेष्ठ एवं अभिजात्य लोगों की संस्था थी। समिति केन्द्रीय राजनितिक संस्था थी। समिति राजा की नियुक्ति, पदच्युत करने व उस पर नियंत्रण रखती थी। संभवतः यह समस्त प्रजा की संस्था थी।

ऋग्वेद में तत्कालीन न्याय व्यवस्था बहुत सुदृढ थी । ऐसा प्रतीत होता है कि राजा तथा पुरोहित न्याय व्यवस्था के प्रमुख पदाधिकारी थे। वैदिक कालीन न्यायधीशों को ‘प्रश्नविनाक’ कहा जाता था।

न्याय व्यवस्था वर्ग पर आधारित थी। हत्या के लिए 100 ग्रंथों का दान अनिवार्य था।

राजा भूमि का स्वामी नहीं होता था, जबकि भूमि का स्वामित्व जनता में निहित था।
ग्राम, विश, और जन शासन की इकाई थे। ग्राम संभवतः कई परिवारों का समूह होता था।

विश कई गावों का समूह था। अनेक विशों का समूह ‘जन’ होता था।

विदथ आर्यों की प्राचीन संस्था थी।

वैदिक कालीन शासन के पदाधिकारी
पुरोहित--- राजा का मुख्य परामर्शदाता
कुलपति--- परिवार का प्रधान
व्राजपति--- चारागाह का अधिकारी
स्पर्श-------गुप्तचर
पुरुष-------दुर्ग का अधिकारी
सेनानी----- सेनापति
विश्वपति--- विश का प्रधान
ग्रामणी---- ग्राम का प्रधान
दूत------सूचना प्रेषित करने वाला
उग्र-----पुलिस

सामाजिक व्यवस्था
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ऋग्वैदिक समाज पितृसत्तात्मक था। पिता सम्पूर्ण परिवार, भूमि संपत्ति का अधिकारी होता था।

पितृ-सत्तात्मक समाज के होते हुए इस काल में महिलाओं का यथोचित सम्मान प्राप्त था। महिलाएं भी शिक्षित होती थीं।

प्रारंभ में ऋग्वैदिक समाज दो वर्गों आर्यों एवं अनार्यों में विभाजित था। किन्तु कालांतर में जैसा कि हम ऋग्वेद के दशक मंडल के पुरुष सूक्त में पाए जाते हैं कि समाज चार वर्गों- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र; मे विभाजित हो गया।

संयुक्त परिवार प्रथा प्रचलन में थी।

विवाह व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन का प्रमुख अंग था। अंतर्जातीय विवाह होता था, लेकिन बाल विवाह का निषेध था। विधवा विवाह की प्रथा प्रचलन में थी। पुत्र प्राप्ति के लिए नियोग की प्रथा स्वीकार की गयी थी। जीवन भर अविवाहित रहने वाली लड़कियों को ‘अमाजू कहा जाता था।

सती प्रथा और पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था।


आर्य मांसाहारी और शाकाहारी दोनों प्रकार का भोजन करते थे। किन्तु केवल अंगरक्षक या आरक्षक ही मांसाहार करते थे ।

आर्यों के वस्त्र सूत, ऊन तथा मृग-चर्म के बने होते थे।
ऋग्वैदिक काल के लोग शक्तिवर्धक पेय पदार्थ सोम का पान करते थे । इन्द्र का प्रिय पेय पदार्थ सोम ही था ।

मृतकों को अग्नि में जलाया जाता था, जिसे अन्त्येष्टि कर्म कहा जाता था ।

ऋग्वैदिक कर्म
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ऋग्वैदिक कर्म की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता इसका व्यवसायिक एवं उपयोगितावादी स्वरूप था।

ऋग्वैदिक लोग एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे, अर्थात् एक निराकार ईश्वर की आराधना करते थे ।

आर्यों का धर्म बहुदेववादी था। वे प्राकृतिक शक्तियों-वायु, जल, वर्षा, बादल, अग्नि और सूर्य आदि का सम्मान किया करते थे। ये देव कहलाते थे ।

ऋग्वैदिक लोग अपनी भौतिक आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए यज्ञ और अनुष्ठान के माध्यम से देवताओं का आह्वान करते थे।

ऋग्वेद में देवताओं की संख्या ३३ प्रकार की बताई गयी है। आर्यों के प्रमुख देवताओं में इंद्र, अग्नि, रुद्र, मरुत, सोम और सूर्य शामिल थे।

ऋग्वैदिक काल का सबसे महत्वपूर्ण देवता इंद्र है। इन्हें युद्ध और वर्षा दोनों का देवता माना गया है। ये देवताओं के राजा थे, अतः इन्हें देवेन्द्र कहा जाता है । ऋग्वेद में सबसे अधिक इन्द्र की स्तुति २५० सूक्तों में की गई है ।

इंद्र के बाद दूसरा स्थान अग्नि का था। अग्नि का कार्य मनुष्य एवं देवता के बीच मध्यस्थ स्थापित करने का था। २०० सूक्तों में अग्नि की स्तुति की गई है ।

ऋग्वैदिक काल में मूर्तिपूजा का उल्लेख नहीं मिलता है। आर्य केवल निराकार ईश्वर की उपासना करते थे ।
देवताओं में तीसरा स्थान वरुण का था। इसे जल का देवता माना जाता है। शिव को त्र्यम्बक कहा गया है।

ऋग्वैदिक देवता
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आकाश के देवता- सूर्य, द्यौ, मित्र, पूषण, विष्णु, उषा और सविता हैं ।
अंतरिक्ष के देवता- इन्द्र, मरुत, रुद्र और वायु हैं ।
पृथ्वी के देवता- अग्नि, सोम, पृथ्वी, बृहस्पति और सरस्वती हैं ।

पूषण ऋग्वैदिक काल में पशुओं के देवता थे । ऋग्वैदिक काल में दो अमूर्त देवता थे, जिन्हें श्रद्धा एवं मनु कहा जाता था।

ऋग्वेद में सोम देवता के बारे में सर्वाधिक उल्लेख मिलता है।
अग्नि को अतिथि कहा गया है क्योंकि मातरिश्वन उन्हें स्वर्ग से धरती पर लाया था।

ऋग्वैदिक काल में जंगल की देवी को ‘अरण्यानी’ कहा जाता था। ऋग्वेद में ऊषा, अदिति, सूर्या आदि देवियों का उल्लेख मिलता है। प्रसिद्ध गायत्री मन्त्र, जो सूर्य से सम्बंधित देवी सावित्री को संबोधित है, सर्वप्रथम ऋग्वेद में मिलता है।

ऋग्वैदिक अर्थव्यवस्था
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(१.) कृषि एवं पशुपालन
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ऋग्वैदिक अर्थव्यवस्था का आधार कृषि और पशुपालन था। गेहूँ और व्रीहि की खेती की जाती थी।

इस काल के लोगों की मुख्य संपत्ति गोधन या गाय थी।

ऋग्वेद में हल के लिए लांगल अथवा ‘सीर’ शब्द का प्रयोग मिलता है। सिंचाई का कार्य नहरों से पानी लाया जाता था। ऋग्वेद में नहर शब्द के लिए ‘कुल्या’ शब्द का प्रयोग मिलता है।

उपजाऊ भूमि को ‘उर्वरा’ कहा जाता था।

ऋग्वेद के चौथा मंडल में सम्पूर्ण मन्त्र कृषि कार्यों से सम्बद्ध है। ऋग्वेद के ‘गव्य’ एवं ‘गव्यपति’ शब्द चारागाह के लिए प्रयुक्त हैं। भूमि निजी संपत्ति नहीं होती थी । उस पर सामूहिक अधिकार था।

घोडा आर्यों का अति उपयोगी पशु था।
आर्यों का मुख्य व्यवसाय पशुपालन था। वे गाय, बैल, भैंस घोड़े और बकरी आदि पालते थे।

(२.) वाणिज्य- व्यापार
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वाणिज्य-व्यापार पर पणियों का एकाधिकार था। पणि वणिक् को कहा जाता था । व्यापार स्थल और जल मार्ग दोनों से होता था। व्यापार दूसरे देशों के साथ भी होता था ।
सूदखोर को ‘वेकनाट’ कहा जाता था। क्रय विक्रय के लिए विनिमय प्रणाली का अविर्भाव हो चुका था। अन्न और निष्क विनिमय के साधन थे।

ऋग्वेद में नगरों का उल्लेख मिलता है, जैसे अयोध्या आदि । इस काल में सोना तांबा और कांसा धातुओं का प्रयोग होता था।
ऋण लेने व देने की प्रथा प्रचलित थी, जिसे ‘कुसीद’ कहा जाता था।

(३.) व्यवसाय एवं उद्योग धंधे
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ऋग्वेद में कुम्भकार (कुम्हार), चर्मकार, लौहकार, वास्तुकार, स्वर्णकार, काश्तकार, तक्षक (बढ़ई) , रथकार, वायव्य (बुनकर) आदि कारीगरों के उल्लेख से इस काल के व्यवसाय का पता चलता है।

सोने, चाँदी, पीतल, तांबे, कांसे के बर्तन बनाए जाते थे । ऋग्वेद में वैद्य के लिए ‘भिषक्’ शब्द का प्रयोग मिलता है। ‘करघा’ को ‘तसर’ कहा जाता था। बढ़ई के लिए ‘तक्षक’ शब्द का उल्लेख मिलता है। मिटटी के बर्तन बनाने का कार्य एक व्यवसाय था।

शिक्षा
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पाठशालाओं में विद्यार्थियों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता था । उन्हें निःशुल्क पढाया जाता था । अध्ययन व्यावहारिक था । कोई भी बेरोजगार नहीं होता था । मनुष्यों के वर्णों का निश्चय ब्रह्मचारियों के कार्य व्यापार को देखकर आचार्य करते थे । गुरुकुलों का खर्चा दान पर निर्भर था । विद्यार्थी भी दीक्षान्त के बाद अपने गुरुओं को दक्षिणा देते थे । विद्यार्थियों का नामांकन योग्यता के आधार पर होता था ।

सामान्यतः प्रत्येक गाँव में एक गुरुकुल अवश्य होता था और पाँच गाँवों पर एक उच्च शिक्षा का महाविद्यालय होता था । १० गाँवों पर एक विश्वविद्यालय होता था । विश्वविद्यालय का संचालन कुलपति करते थे, वे विश्वविद्यालय के सरंक्षक भी होते थे । नालन्दा विश्वविद्यालय . तक्षशिला विश्वविद्यालय , विक्रमशिला विश्वविद्यालय , उज्जैन विश्वविद्यालय की बहुत प्रसिद्धि है ।

गुरुकुलों में सभी वर्णों के विद्यार्थी समान अधिकार से पढते थे । उनमें कोई भेदभाव नहीं किया जाता था । एक साथ राजा, ब्राह्मण और शूद्र के बालक अध्ययन करते थे । अध्ययनकाल में माता-पिता बालकों से नहीं मिल सकते थे । सामान्यतः विद्यालय में प्रवेश ८ से १२ वर्ष में होता था और २२ से २५ वें वर्ष में उनकी शिक्षा पूरी हो जाती थी । जो अधिक पढना चाहते थे, वे विश्वविद्यालय में प्रवेश पाते थे । छात्र स्वेच्छा से गार्हस्थ या ब्रह्मचर्य का जीवन जीते थे । कन्याओं को शिक्षा के उपरान्त युवा ब्रह्मचारी को पति के रूप में चुनने का अधिकार था । विवाह के लिए स्वयंवर का आयोजन किया जाता था ।

स्मरणीय तथ्य
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आर्यों की तीन क्षेणियाँ थी--- योद्धा, पुरोहित और सामान्य। जन आर्यों का प्रारंभिक विभाजन था। शुद्रो के चौथे वर्ग का उद्भव ऋग्वैदिक काल के अंतिम दौर में हुआ।
इस काल में राजा की कोई नियमित सेना नहीं थी। युद्ध के समय व्यवस्थित की गयी सेना को ‘नागरिक सेना’ कहते थे।

ऋग्वेद में किसी परिवार का एक सदस्य कहता है- मैं कवि हूँ, मेरे पिता वैद्य हैं और माता चक्की चलाने वाली है, भिन्न भिन्न व्यवसायों से जीवकोपार्जन करते हुए हम एक साथ रहते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि पिता पुत्र पर कोई आधिपत्य नहीं जमाता था कि वो उसके अनुसार ही कार्य करें । पुत्र व्यवसाय चुनने में स्वतन्त्र होते थे ।

‘हिरव्य’ एवं ‘निष्क’ शब्द का प्रयोग स्वर्ण के लिए किया जाता था। इनका उपयोग द्रव्य के रूप में भी किया जाता था। ऋग्वेद में ‘अनस’ शब्द का प्रयोग बैलगाड़ी के लिए किया गया है।

वैदिक लोगों ने सर्वप्रथम तांबे की धातु का इस्तेमाल किया।

यज्ञों का संपादन कार्य ‘ऋत्विज’ करते थे। इनके चार प्रकार थे- होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्म। कार्य स्थलों पर पाक्षिक अवकाश होता था । अर्थात् चतुर्दशी अमावास्या और चतुर्दशी पूर्णिमा को एक पक्ष में दो अवकाश मिलते थे । चतुर्दशी के दिन यज्ञ की तैयारी की जाती थी और अमावास्या या पूर्णिमा को सामूहिक हवन होता था । गुरुकुलों में भी इसी प्रकार का अवकाश रहता था और हवन किया जाता था । चतुर्दशी के दिन साफ-सफाई की जाती थी ।

संतान की इच्छुक महिलाएँ, जिनके पति का निधन हो गया हो या पति सन्तान उत्पन्न करने में असमर्थ हो तो वे नियोग प्रथा का वरण करती थीं ।

‘पणि’ व्यापार के साथ-साथ मवेशियों की भी चोरी करते थे। उन्हें आर्यों का शत्रु माना जाता था ।

वैदिक साहित्य
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ऋग्वेद में मन्त्रों का संकलन है। इसके १० मंडलों में१०१७ सूक्त हैं। इन सूक्तों में ११ बालखिल्य के सूक्त भी हैं, इस प्रकार कुल १०२८ हो जाते है।

ऋग्वेद के ऋषि
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प्रथम -----------मधुच्छन्दा वैश्वामित्र
द्वितीय-------गृत्समद
तृतीय------ विश्वामित्र
चतुर्थ -------गौतम
पंचम --------अत्री
षष्ट-------भारद्वाज
सप्तम---------वशिष्ठ
अष्टम------ कण्व तथा अंगीरस
दशम-------त्रित आप्त्यः
विभिन्न मण्डलों में विभिन्न ऋषियों ने अपने सूक्तों की व्याख्या की है । उपरिनिर्दिष्ट ऋषि के नाम सामान्य रूप से हैं ।

गायत्री मंत्र ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में हुआ है।
१० वें मंडल में मृत्यु सूक्त है, जिसमे विधवा के लिए विलाप का वर्णन है।

ऋग्वेद के दसवें मण्डल के ९५ वें सूक्त में पुरुरवा,ऐल और उर्वशी का संवाद है।
ऋग्वेद के नदी सूक्त में व्यास (विपाशा) नदी को ‘परिगणित’ नदी कहा गया है। =============================
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