!!!---: वराह-शब्द का वैदिक अर्थ :---!!!
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पुराणों में विष्णु के २४ अवतार बताएँ हैं । वराह भी उनमें से एक है । वैदिक ग्रन्थों में भी वराह शब्द का विस्तृत विवेचन हुआ है, किन्तु पुराण के रचयिता ने इस शब्द का अनर्थ किया है । इसलिए पौराणिक जन वराह का भिन्न अर्थ ग्रहण करते हैं । दूसरी ओर आर्य विचारधारा वाले वराह के वैदिक अर्थ को ग्रहण करते हैं, जिससे दोनों में मतभेद है । वस्तुतः वराह शब्द का आलंकारिक वर्णन हुआ है, वैदिक-साहित्य में ।
इसका वैदिक स्वरूप क्या है ? इस विषय पर हम विस्तृत लेख लिख रहे हैं । आशा है,, आप इसे पूरा पढकर उचित टिप्पणी करेंगे ।
वराह का पृथिवी-उद्धारः----
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विष्णु ने वराह रूप धारण करके जलनिमग्ना पृथिवी का उद्धार किया, भारतीय वैदिक तथा लौकिक उभयविध वाङ्मय में यह घटना सुप्रसिद्ध है ।
वराह शब्द का मूल अर्थ
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वराह शब्द का अर्थ है---वर (जल) को आहरण करने वाला अथवा नष्ट करने वाला । निघण्टु (१.१२) में वाः (वर) उदकनामों में पठित है । इससे इसका जल अर्थ है । इस मूल यौगिक अर्थ की दृष्टि से वराह शब्द वैदिक वाङ्मय में उन सभी पदार्थों के लिए प्रयुक्त हुआ है जो जल प्लावन के पश्चात पृथिवीस्थ जल को आहृत अथवा दूर करके जल निमग्ना पृथिवी को जल से बाहर निकालने में सहायक हुए ।
वराह के वैदिक अर्थ देखिए, वराह ने पृथिवी का उद्धार भी किया------
(१.) वराह नाम मेघ का है । निघण्टु (१.१०) में वराह पद मेघ नामों में पठित है । निरुक्त (५.४) में लिखा है---
"वराहो मेघो भवति, वराहारः ।" अर्थात् वराह मेघ होता है । वर (जल) को आहरण करने वाला है ।
जल-प्लावन के पश्चात सूर्य की किरणों से पृथिवी का जल मेघ रूप में ऊपर उठने लगा । जल के न्यून होने से पृथिवी बाहर निकली ।
ऋग्वेद ८.७७.१० में एक मन्त्र आया है---
"विश्वेत्ता विष्णुराभरद् उरुक्रमस्त्वेषितः ।
शतं महिषान् क्षीरपाकमोदनं वराहमिन्द्र एमुषम् ।।"
अर्थः---उन सबको उरुविक्रम तेजस्वी विष्णु ने आहरण किया । सैकडों महिषों (मेघ विशेषों) और क्षौर को पकाने और पृथिवी को गीला करने में समर्थ एमुष वराह (मेघ विशेष) को इन्द्र ने ।
एसी एमुष (एमूष) वराह के द्वारा पृथिवी का उद्धार का वर्णन शतपथ-ब्राह्मण में आया हैः---
"इयती ह वा इयमग्र पृथिव्यास प्रादेशमात्री, तामेमूष इति वराह उज्जघान, सोSस्याः (पृथिव्याः) पतिः प्रजापतिः ।।" (श.प.ब्रा. १४.१.२.११)
अर्थः---इतनी ही यह पृथिवी पहले थी प्रादेश (१० अंगुल) परिमाण वाली । उसको एमूष नाम वाले वराह ने ऊपर को प्राप्त कराया । वह इस पृथिवी का पति प्रजापति है ।
ऋग्वेद में "एमुष" और शतपथ में "एमूष" विशेषण होने से स्पष्ट है कि यह वराह सामान्य मेघ नहीं थे । एमुष अथवा एमूष पद का अर्थ है----आ (सब ओर से) ईम (जल को (अपने अन्दर), उष अथवा ऊष (वस निवासे) बसाने वाला । अर्थात् जलप्लावन की महान् जल राशि को अपने अन्दर समेट लेने वाला महामेघ ।
तैत्तिरीय आरण्यक १.९.४--५ में सप्तविध मेघों में "वराहु नामक मेघों का वर्णन मिलता है----
"वराहवः स्वतपसो विद्युतो महसो धूपयः स्वापयो गृहमेधाश्चेत्येते......पर्जन्याः सप्त पृथिवीमभिवर्षन्ति वृष्टिभिः ।।"
सम्भवतः वराह और वराहु एकार्थक है ।
वराह की उत्पत्ति
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इस मेघ रूपी वराह की उत्पत्ति के विषय में शतपथ-ब्राह्मण में आया हैः---
"अग्नौ ह वै देवा घृतकुम्भं प्रवेशयां चक्रुस्ततो वराहः सम्बभूव । तस्माद् वराहो मेदुरो घृताद्धि सम्भूतः । तस्माद् वराहे गावः संजानते ।।" (श.प.ब्रा. ५.४.३.१९)
अर्थः---अग्निः (सूर्याग्नि) में देवों (मरुत आदि सहायकों) ने घृतकुम्भ (स्निग्ध) जलसमूह को प्रविष्ट किया । उससे वराह उत्पन्न हुआ । इसीलिए वराह अधिक मेद वाला है, (क्योंकि) वह घृत से उत्पन्न हुआ है । इसीलिए वराह में गौवें (किरणें)....
इस वराह का विस्तार
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वायु पुराण (६.१२) के अनुसार यह वराह दश योजन विस्तीर्ण , शत योजन उच्छ्रित अथवा ऊँचा था । अतः यह वराह पशु नहीं था, मेघ रूपी वराह था ।
(२.) जल के भीतर दूर तक प्रविष्ट होकर जल को आहरण करने वाली अङ्गिरस नामक सूर्य की किरणें (ऋग्वेदः--१०.६७.२) भी वराह कहाती है । उदारधी यास्काचार्य ने "अङ्गिरसोSअपि वराहा उच्यन्ते" लिखकर निम्न मन्त्र उद्धृत किया है---
"स ईं सत्येभिः सखिभिः शुचद्भिर्गोधायसं वि धनसैरदर्दः ।
ब्रह्मणस्पतिर्वृषभिर्वराहैर्घर्मस्वेदेभिर्द्रविणं व्यानट् ।।" (ऋग्वेदः--१०.६७.७)
अर्थः---यह (ब्रह्मणस्पति) सत्य दीप्तियुक्त धनस सखाओं से किरणों को धारण करने वाले जलों को विभक्त करता है । ब्रह्मणस्पति वृष्टि करने वाले घर्मस्वेदित होने वाले वराहों से जलों को विशेष रूप से अदृष्ट करता है (नष्ट करता है ) ।
काठक संहिता में भी आया है---
"आपो वा इदमासन् सलिलमेव । स प्रजापतिर्वराहो भूत्वा उफन्यमञ्जत् । तस्य यावन्मुखमासीत् तावतीं मृदमुदहरत् । यद् वराहविहृतं भवति ।।" (का.सं. ८.२)
आपः निश्चय से ये सलिल (जिसमें सब लीन हो) ही । वह प्रजापति वराह (वर--(जल) का आहरण करने वाला) होकर (सलिल में) अधिक दूर तक डूबा । उसका जितना मुख था, उतनी मिट्टी को बाहर निकाला । वह यह पृथिवी हुई । जो वराह से खोदी हुई होती है (अग्न्याधान के समय अग्निः के स्थान में डालने योग्य मिट्टी) ।
तैत्तिरीय-ब्राह्मण (१.१.३.६) में भी यही भाव प्रकट हुआ हैः---
"स (प्रजापतिः) वराहो रूपं कृत्वोपन्यमज्जत् । स पृथिवीमध आर्छत् । तस्या उपहत्योदमज्जत् । तत् पुष्करपर्णे प्रथयत् । तत् पृथिव्यै पृथिवित्वम् ।।"
अर्थः---वह (प्रजापति सूर्य) निश्चय से वराह का रूप करके (जल में) दूर तक डूबा । वह पृथिवी के नीचे प्राप्त हुआ, उसके.....बाहर निकला । उसे पुष्करपर्ण पर फैलाया, वही पृथिवी का पृथिवीत्व है ।
(३.) जल को आहरण करने वाले (सुखाने वाले) वायु मरुत भी वराह कहाते हैं .....वायु पुराण अध्याय ८ में लिखा हैः---
"ब्रह्मा तु सलिले तस्मिन् वायुर्भूत्वा तदाचरन् ।।२।।
स तु रूपं वराहस्य कृत्वापः प्राविशत् प्रभुः ।
अद्भिः संछादितामुर्वी समीक्ष्याथ प्रजापतिः ।।७।।
उद्धृत्योर्वीमथाद्भ्यस्तु अपस्तासु स विन्यसन् ।।८।।
अर्थः--उस सलिल पर ब्रह्मा वायु होकर विचरता हुआ, वराह रूप धारण करके अपों में प्रविष्ट हुआ । प्रजापति ने जल से ढकी हुई पृथिवी को देखकर जल से बाहर निकाला ।
पहले लिखा गया है कि वराह और वराहु एकार्थक है । इसी दृष्टि से आचार्य यास्क ने लिखा है---
"अथाप्येते माध्यमिका देवगणा वराहव उच्यन्ते ।।"
अर्थः---और भी ये मध्यम स्थान वाले देवगण "वराहु" कहाते हैं । यास्क मरुत् वाचक वराहु के लिए ऋग्वेद १.८८.५) का मन्त्र उद्धृत करते हैं ।।
जलप्लावन के समय पृथिवी का अत्यल्प भाग ऊपर रह गया था । मेघ बनने के पश्चात् पृथिवी बाहर आई ।
महाभारत में लिखा हैः---
"वाराहं रूपमास्थाय मयेयं जगती पुरा ।
मज्जमाना जले विप्र वीर्येणासीत् समुद्धृता ।।" (वनपर्व--१९२.११)
तथा
"वाराहं रूपमास्थाय मही सवनपर्वताम् ।
उद्धरत्येकदंष्ट्रेण तस्मै क्रीडात्मने नमः ।।" (शान्तिपर्व--४६.९४)
और वन पर्व के जयद्रथ विमोक्षण अवान्तर पर्व २७३, श्लोक---४९--५६ तक में एकार्णव के पश्चात् वराह द्वारा पृथिवी का उद्धार लिखा है ।
"चतुर्युगसहस्रान्ते सलिलेनाप्लुता मही । (वनपर्व---२७३.३८)
"एवमेकार्णवे जाते चाक्षुषान्तरसंक्षये ।।" (मत्स्य, अ. २)
महाभारत और पुराण के पूर्वोक्त प्रमाणों में कहा गया है कि वराह ने पृथिवी का जल से उद्धार किया । यह घटना जलप्लावन के सद्यः पश्चात् की है ।
ऐसी ही एक घटना जलप्लावन के बहुत काल पश्चात् की भी है । तीसरा देवासुर संग्राम वराह नाम से विख्यात है । वराह नाम का एक असुर था, जो उस युद्ध में मारा गया । उस समय वराह ने अपनी दंष्ट्रा से समुद्र के दो भाग कर दिए थे----
"हिरण्याक्षो हतो द्वन्द्वे प्रतिषाते तु दैवतैः ।
दंष्ट्रया तु वराहेण समुद्रस्तु द्विधा कृतः ।।" (मत्स्य--४७.४७)
इसका अभिप्राय यह है कि जब पाताल देश के समीप का कोई समुद्र दो भागों में विभक्त हुआ तो उत दोनों भागों के मध्य में जो भूमि निकली वह वराहाकारा थी ।
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